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तप वर्णन
(विवेक ने ब-हा) हमें निश्चित रूप से निष्कारण भेजा गया है और मैंने हे स्वामो ! तुमसे प्रावर निवेदन किया है । इस पर मुनीश्वर जिनदत्त कहने लगे कि इस भव समुद्र में कौन (जीव) सुखसे रह सकता है । ।।५४५।।
निविकार परमात्मा का ध्यान करके तथा अन्त में तीसरे भव में केवल झान प्राप्त करके और पाठ कर्मों का क्षय करके जिनदत्त ने निर्वाण लाभ लिया। ॥५४६।।
मुद्धर घोर दार तर लि, साह सगि ह' सम्म पखालि । हनि ते नारि लिगु गय सम्गि, सुह रायसिह काशिनिय लाग । यह जिनवस चरिउ निय कहिउ, अशुह कम्मु सुई सुह संगहा । वित्थुरु भधियह मुबहु पुरारिण, गहु जिप दोस देहु मह जाणि ।।
अर्थ :-- उस वीर के दर तथा घोर तप का पालन कर सारे दुष्कर्मों का प्रक्षाल कर (यो) दिया तथा ६ (चारों स्त्रियो) स्त्री लिग छैद कर स्वयं गई । तु भी रायसिंह, अपने काज (अात्म हिन) में लग ।। ५४७11 - जो इस जिनदत्त चरित को नित्य कहेगा, वह अशुभ कर्मों को चूर कर शुभ कर्म का संग्रह करेगा । हे भविको, इस पुराण को विस्तार में सुनना और इस विषय में मुझे (ख) जान कर दोष मत देना ।।५४८11
निय- नित्य
नय समाप्ति
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५४६-५५० 1
जो जिगदत्त की निंदा करह, मुनत चउपही जल जति मर मओ यह कमा पालिहइ रालि, सह मिछत्ती वइ यह गालि ॥ मह जोबउ जिरणवत्त पुराणु, लाख विस्यउ अहस पमाणु । देखि विसूरु रयउ फुड एहु, हस्थालवणु बुहयण देहु ।