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'जिसने पाषाण की पुतली को मोहित कर लिया उस पुण्यवंत को प्रगंमा (?) कौन कर सकता है ?
पापारा शिला को तारुणी विद्या द्वारा मोहित कर हँमाने और उसके द्वारा लोगों का मनोरंजन करने का प्रसंग कुछ ही पूर्व प्राया है (छंद-३३५३३६), दोनों चरणों के तुक में 'पषारण' है, जिनमें से पहला प्रसंग के लिये अनिवार्य है और दूसरा अर्थ-होन, इसलिए दूसरे के स्थान पर पाठ संभवतः 'वखारण' होना चाहिये था।
*४८. ३६३.१. 'परिहसु लियउ दिसंतर करई' में 'परिहसु' का अर्थ 'खुशी के साथ किया गया है, कि "परिस' 2 परिहाम = [लोक द्वारा किया जाने वाला] उपहास है, जुए में ग्यारह करोड़ रुपये हार जाने के लोकपरिहास के कारण हो जिदत्त देशान्तर गया था दि० छंद १५६)।
४६. ३६३.२; 'जहि को हाथ अंजणी चडइ' का अर्थ किया गया है 'जिमने अपने हाथ से अंजनी (गुटिका) चढ़ाई, किन्तु होना चाहिये जिसके हाथ अंजनी गुटिका बढ़ी' (दे० छंद १५२) ।
५७. ३७६.३: 'अण छाजत इस मधु कोद' का प्रथं किया गया है, 'यहाँ मन्त्र अनचाहा हो रहा है', जम कि होना चाहिये, 'प्रशोमन को सभी लोग हसते हैं।'
५१. ३८४.४: 'प्रति करि भथियज कालकुट होइ' के 'कालकुठू' का पर्थ किया गया है ‘कालकुष्ट', होना चाहिये 'कालकूट', ममुद्र से उसके प्रत्यधिक मंथन के कारण 'कालकूट' निकला था।
५२. ३६२.२: 'किन पत तो मिलवह वइसारि' का मर्य किया गया है, 'तब उन्हें बैठाकर मिल क्यों नहीं लेते? 'जबकि होना चाहिये. 'तब उन्हें बिठाकर उनमें [अपना] प्रत्यय (विश्वास) क्यों नहीं मिलाते (उत्पत करते ) हो?' ५३. ४०६,४ 'कोदइ' का अर्थ 'चांवल किया गया है, किन्तु 'कोदई'