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६८. ४५८. १: 'कोटा पा [गार ] ( उ ) तरंग अपार' का प्रथं किया गया है, 'कोट के पास ऊंची प्राकार थी, जब कि होना चाहिये, 'कोट का प्राकार अत्यधिक उत्तरंग ( ऊंचा ) था ।
६६. ४६०. ३: 'सुहनाल' का अर्थ 'तोप' किया गया है, किन्तु 'सुहास' एक योद्धा का नाम है, जो श्रागे राजा चन्द्रशेखर के दूर के रूप में जिदत्त के पास जाता है । (दे० ४६४.२, ४६६. १) ।
७०. ४६५. २: 'हाकि करण्इ दंड प्रतिहारी ने स्वर्णदण्ड हांका ( हिलाया ) धारण करने वाले प्रतिहारी ने उसे हांका (
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परिहारि' का अर्थ किया गया है,
जबकि होना चाहिये 'कनक दण्ड
पुकारा ) ' ।
औ७ १. ४६६ ४: देवि सीसुधिर लगि पाउ' का अर्थ किया गया है 'विश्वास दिलाकर उसने राजा के चरणों का स्पर्श किया' | 'देवि सोस' के स्थान पर शुद्ध पाठ कदाचित् 'ये विसासु' मान कर किया गया है, किन्तु राजा (जिदत्त) के दर्शन करते ही उसे विश्वास दिलाने का कोई प्रश्न नहीं उठता है, इसलिये यह श्रर्थं प्रसंगसम्मत नहीं है। शुद्ध पाठ 'देवि' के स्थान पर कदाचित् 'देखि ' होगा, इसलिये अर्थ होगा, 'राजा (जिदत्त) को देखकर दूत अपना सिर रखते हुए उसके पैरों लगा' ।
७२. ४७५ ३: 'अकहा कहा किम कहियर वेठि' का अर्थ किया गया है । 'यहां बैठकर न कहने योग्य बात क्यों कहते हो ? ' किन्तु होना चाहिये, 'यहाँ बैठकर यह कथनीय (जिदत्त के द्वारा नगरश्रेष्ठी जीवदेव को मांगने का ) कथन कैसे कहा जाए ?
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७३. ४७९.२ः 'वरु किनु नमरहं कुइला बवइ' के 'कुइला' का अर्थ 'कुचला' किया गया है। किन्तु 'कुइला' 'कोयला' है. और 'कोयला बोना' एक मुहावरा है, जिसका अर्थ होता है 'धाग लगाना' ।
*७४. ४८३.१: 'तूट
सोमिय दुह तराज' का श्रर्थं किय गया है,
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