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चाहिये होना उत्क-पतन (वासना से निवृत्ति) और वैगम्यलाभ के निमित्त ही संसार के वित्त का मोगलाम कर' ।
८१. ५१३.३: 'परिवारह सो हियउ महंतु' का अर्थ किया गया है, 'अपने परिवार के सहृदय से महान् हो गया', जब कि होमा कदाचित् चाहिये, 'परिवार पूर्ण होने के कारण वह हृदय का महान हो गया था।
८२. ५१५.१: 'गुरु' का अर्थ (उसका) गुरु' लिया गया है, किन्तु शब्द संभवतः केवल 'पूजनीय व्यक्ति' के अर्थ में प्रयुक्त हुना है ।
८३. ५१७.२. 'कह (हुम) गीसरु गालिउ कम्म' का अर्थ 'कह' के अनन्तर 'हु' लगा करके किया गया है, 'मुनीश्वर ने कहा, कर्मों को नष्ट करो' । किन्तु कदाचित होना चाहिये [तब] मुनीश्वर ने, जिन्होंने कर्मों को गालित कर रखा था- छान रखा था, 'कहा। ४८४. ५२१.१. 'बारह भावरण काय वियारि, संप्रमु नेम धम्मु तज चारि का अर्थ किया गया है 'बारह भावनाओं का विचार (चिन्तन) करो, तथा' संयम, नियम, (दश-लक्षण) धर्म और तप इन चारों को.........., किन्तु होना चाहिये, 'मैंने बारह भावनाओं को विचार कर कहा और संयम, नियम, धर्म तथा तप इन चार के विषय में बताया।
१५. ५२१.३: 'असंतरि परमप्पा बुज्मि' का अर्थ किया गया है, 'परम पद के लिये अभ्यंतर (अन्तरंग) रूप से जानो', जब कि होना चाहिए, 'अभ्यंतर (अन्तःकरण) के परमपद को जान कर ।
८६. ५२२. ४: 'शुक्ल ज्झारण वरिउ अलेउ' का अर्थ किया गया है'शुक्ल ध्यान के भेदों को जान कर ग्रहण एवं त्यागो', जब कि होना चाहिये, 'मैंने अलेप (अलिप्त) शुक्ल ध्यान का कथन किया।
*८७. ५२६. ४:, ५३०.२: 'चरिणजी' का अर्थ लेन देन' किया गया है होना चाहिये 'वाणिज्य' = 'ऋय विक्रयादि' ।