Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Rajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

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Page 289
________________ ४१. ३३३. ३-४: 'तज मे देष तिनि सीखी कला, जी न हसाउ पाहणु सिला' का अर्थ किया गया है, 'हे देव! मैंने तो वह कला सीखी है कि मैं पाषरण की शिला को भी न हंसा हूँ (तरे मेरा क्या नाम)', अब कि होना चाहिये, 'हे देव, तब तो मैंने वह कला सीखी ही नहीं, यदि मैं पाषाण-शिला को (मी) न हंसा हूँ।' ४२. ३४१.४: 'सो बुलाई' का अर्थ किया गया है, 'बह लौटकर, जबकि होना चहिये, 'उस [मौन धारण किए हुई] स्त्री को बुलवाकर [ मौन तोड़कर] बोलने के लिए प्रेरित कर'। ४३. २४२.२. 'सुणि सुणि तिरिया मेल उ परिमा अहा गयउ सोह' का अर्थ किया गया है, 'हे स्त्री सुनो, सुनों, जैसे ही वह (सागर में ) गग, बह छोड़ दिया गया', जब कि होना चाहिये, 'हे स्त्री! सुनो, सुनो, [समुद्र में j छोड़ दिये जाने पर वह जहाँ गया। ४४. ३४४.३; 'देई देई जाम जाम तहि वहु रयण समरिय' का अर्थ किया गया है, 'यह उसे बार-चार रत्न देने लगा', अब कि होना प्राहिये 'जमी बह उसे समस्त {प्रकार के] बहुतेरे रत्न देने लगा। ४५. ३५५.४: 'भन्न लावत लपज जिरणदत्त' का अर्थ किया गया है। 'उसके मन (जन्म) का ज्ञान कराते हुये पकड़ा', किन्तु होना चाहिये, जिनदत्त उस [हाथी को] मैंवाने (चक्कर देने लगा। ४६. ३६०.४, 'सब पुरु सामि प्रधभो भयउ' का भर्थ किया गया है, 'सभी पुरुषों को प्राश्चर्य हुना', जब फि होना चाहिये, उसने कहा, "हे स्वामी, समस्त पर की मारपर्य हुमा-" । ४७. ३६२.३-४: 'जो मोहित पूलिय पहाण, पुण्यवंत को सफइ पहाण (वस्थाण?)' का अर्थ किया गया है जो पत्थर का पूतली को देखकर मोहित हो गया, उस पुण्यवंत की कितनी प्रशंसा की जाबे ?' किन्तु होना चाहिये,

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