________________
१६४
जिणदत्त चरित
( जिनदत ने कहा ) हे विवेक सुनो मैं तुमसे एक रात कहता हूँ । पहिले वाले योप देखे जाते हैं । मुक्ति लक्ष्मी के निकट बैठने पर भी मुझे काम देव पर विजय पाप्त करने की दृष्टि दी है । मुक्ति लनी जब (हमारी) दासी होगी तथा हम निश्चय रूप से आभास देकर छूटेंगे । जिसकी कांति प्रकाशित होकर निकलती है ऐसे मुनि श्रेष्ठ ( काम देव ) के दांतों को तोड़ डालते हैं। ||५४१-४२।।
विवेय । विवेक पज्जोवहि प्रयोतित .- प्रकाशित करना
[ ५४३-५४४ ] रतिपति जो इह सी तमु लछि, अहो विधेय झत्ति निरु गछि । विएवहि जाइ मुरिगद गरिछु, मुक्ति निवारण जो निरु एछ ।। पहिलइ हूंतउ रिणय परिरस्तु, सा छडिवि मह भयउ प्रासत्तु । इय विदेय जएसहि तित्यु, मुणिका गणु प्रष्टइ जित्थु ।।
(जिनदत्त ने कहा) यहाँ जो (पहिले) रति पति था वही तय लक्ष्मी का पति है । हे विवेक, शीघ्र ही निश्चित रूप से जायो और गरिष्ठ (बड़े) मुनिन्द्र से जाकर कहो कि मुक्ति निलंबिनि (उसे ) निश्चित रुप से इष्ट है । पहिले मैं अपनी ही (लक्ष्मीपर) अनुरक्त था । उसे छोडकर मैं फिर (तप लक्ष्मी) से आसक्त हो गया । अब हे विवेक, हम उसी तीर्थ जावेंगे जिसको मुनिश्रेष्ठ उत्तम कहते हैं ।
[ ५४५-५४६ ] सिक्काररिण हउ रिणरु पाठल, मई तुहु सामी प्राइ बीनयउ । ता जिणवत्त मुरिगसच कहइ, भव समुद्र को सुहयर रह्ह ।। निधियप्पु परमप्पज भाह, केवलणाणु अगंतु उपाइ । पुणु छुडु प्रठ कम्म लउ लेह, तीजइ भव मरि भोरुह गए ।।