Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Rajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur
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चंदण = वन्दना - १७, घंघरगु = चन्दनार्थ – ५१५,
षण-पए = भरण २ - ३४४, वंदन = चंदना - ५१६,
षोडसु = सोलह - २४, वंदरा = - ३७, वंदह - वंदना करके - १५६, बंदि
- २६१, २९२, । स- यह - १५७, ३५८, मंदिरणीजण - बन्दी जन - ८०, सइ = उनके, राजा - १,२८०, ३५. बंधद = अधिकर - ३२६,४७८, सइहार = सहकार - १६६, थंघरण = बंधा हुमा - ३४४, सउ = सौ - १६५, २००, वंधणी - - २८९, स उकु = उत्साह पूर्वक - ६०, १२५, चंधि = बांधना - ३५६,
सउघी = सस्ती - २०१, चंभण = बागरण - ३७,
सखस = सब - ४०७, वंभा = , - ३३५,
सकद = कर सकना = ३६२, संवानु = जोर शोर से - १७५, सक्कई =
-५१६, चराविद्धि - चंश वृद्धि - ६७, सकः .. क - 1 व्यवहारइ = व्यवहार - ३५, सकरू' = शंकर -- १०७, च्याकारण
सकहि = सकना - ३६३, व्याधि = व्याधि - ४४८,
सकन्तु = , - ७३, च्याह = विवाह - ३२६,
सकार = 'स' से प्रारम्भ होने वाले - व्योहार - व्यवहार - ३२,
सअटवउ = सकुटुम्ब - ३२, सके = ............ - ४४०,
सखी = सहेली - १०२, २४५, २५६, शाध्य - प्रावाज - १७५,
सम्ग - स्वर्ग - ३१, ५२८, शरीर - देह - ११८,
सम्गमोक्ष = स्वर्गमोक्ष - ५११, शुक्लपमाण = शुक्लघ्यान – ५२२, सग्गवर - अवक - ५०७, गुखु = सुख - ४१४,
सगहि = उपसर्ग - ४८७ शुद्ध = पवित्र - ५१४,
सगि - .............." -- ५४७, शुभ = ...........'' -- २८८, सगुण - शकुन - ५७, ४४१, शुहिणाल = दूत का नाम - ४६४, सगे =
-४०८, श्रवण - श्रमण - ५०,
सजण = सज्जन - १११, श्री रघुरा = नाम - ३६५
सजि - सजना - २५१, श्रीवसंतमाला = -२७१, सहि : - ४४८,

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