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जीवदेव जिनदत्त मिलन
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करते हुये दोनों दुविधा में पड़े। शत्रु की सेना के पास (लिए जाने के लिए चले ॥४५॥
सेठ के चलते समय राजा......नगर के लोगों के भी वित में विस्मय (दूरस) हया । सेठ के साथ बहुत से व्यक्ति चले और फिर वे जिनदत्त की सेना में प्रविष्ट हुए !!४८६।।
मूलपाठ ' मारगरवई"
। ४८३-४८८ ] सावधाण किउ बिटु चितु सेठि, लागिउ सुमणि मग परमेति । इहि (उव?) सहि जइ उवरहि, तउ पाहाल तबह कि करई ।। पइठिन कटकह बहू जण राहिज, ...पाइ जाह राइ सिउ कहिउ । सउ जिणदत्त भणइ मुहु जोइ, वहुले मिलियज प्रावइ...... |
अर्थ :-सेट ने अपने चित्त को सावधान एवं दृढ किया तथा पंच परमेष्ठि का मन में स्मरण करने लगा। (उसने संकल्प किया.) "यदि इस उपसर्ग से मैं वर जाऊंगा तो मैं किसी तपस्वी को अवश्य पहार दूंगा" ॥४८॥
बहुत से व्यक्तियों के साथ बह सेना में गया और वहाँ जाकर राजा से निवेदन किया । फिर जिनदत्त उसका मुग्न दलकर कहने लगा, 'बहुत से पक्ति मिलकर मिलने आए हैं" ॥४८८।।
जो हा सेठि पम्मु को निसल, सो यह गोषदेउ कुलतिलाउ । भणइ राउ मह जी वत काइ, बापु माइ निहि प्रावतु पाद ।। नेत पटोली पंय पसारि, प्राबद सेठि प्रवरू तहि नारि । सिंहासण टुइ रयणह अडिय, बहसइ प्राणि सेठि कहु परिय ।।