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जिरणवत्त चरित
गानि गालित-छना हुआ निगंथ - निन्थ --परिग्रहहीन, मुनि
[ ५१६-५२० ] अणुव्वय पंच गुणन्वय तिन्नि, घर सिखाव्यउ धरि छउवण्ण । अंतशाल सल्लेहणु होइ, ए सावय वय पाखहि जोइ ॥ पुण प्रणयार धम्म बहु भेय, कहिट मुरिंणद भवमल छेउ । सत्त तच्च सय रसव पद बन्द, पंचकाय तुह जागहि भव्य ।।
अर्थ :- पांच अरगुत्रत, तीन गुणत्रत तथा चार शिक्षान्नत (इन बारहवतो को) चारों वर्ण (ब्राह्मरण क्षत्री, वैश्य और शुद्ध) धाररंग करे तथा अन्त समय सल्लेधना धारण करे, वे थावक के व्रत कहलाते हैं ।।५१६।।
फिर मुनि ने मन-मल को छेदने वाले अनागार (पति) धर्म के अनेक भेदों को कहा । हे भव्य । सात तत्व, (सात) नय, नव पदार्थ, (छह) द्रव्य और पंचास्तिकाय को तुम जानो ॥५२०।।
[ ५२१-५२२ ] बारह भावरण कहिय बिमारि, संजमु नेमु धम्म तज वारि । अभंतरि परमप्पा बुझि, उतम ज्झाणु कहिच मह सझि ॥ पुण पयस्थु पिस्थु जिणुत्त, रूब शुरु गय रूव अर्यतु । प्रद्द रउद धम्म कउ भेउ, शुक्ल झारण वज्जरिउ अलेउ ।।
अर्थ- और कहा "बारह मात्रनाओं का विचार. (चिन्तन) करो तथा मंयम, नियम, (दश लक्षागा) धर्म अोर नप इन चारों को परमपद के लिये अभ्यंतर (अन्तरंग) रूप से जानो । अब मैं तुझे उत्तम ध्यान को बाहता हूँ ।।५२१।।