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पूर्व भव वर्णन
मुणि एकु बग माहि ज्झाए समाहि, ताहि पय पूजित वरणगी जाहि । छठन मास त पूजिउ तह, भारि गपउ जति पुरु माहि ॥
अर्थः - हे जिरणदत्त! (शिवदेव को पर्याय में) तू अत्यधिक दारिद्रय से पीडित था लेकिन (तूने) अपने धर्म को कभी नहीं छोडा । तेरे हृदय में नित्य जिनेन्द्र देव वसते थे और लेन देन करके तू अपना पेट भरता था ॥५२॥
वन में समाधि के ध्यान में लगे हुए एक मुनि थे जिनके पद- पूज कर (तू) वरिंगजी को जाया करता था। इस तरह ) छह माह तक उनकी सेवा करता रहा । तब वह मुनि नगर में भ्रामरी (प्रहार) के लिये गये ।।५३०॥
[ ५३१-५३२ } तू पडिगाहि घरहि लइ गयउ, पाय पूजि पुरिण पाढउ कियउ । लाइ बाइणो घरहि ते जाइ, महा मुलीसस चरी कराहि ।। जसबइ जिनबइ गुणवह जारिण, चउथी सुबह मरिण परियारिग । देखित तोहि धम्मु का भाग, चारिउ तिरिय भइय अनुराग ।।
अर्थ :-तू (उन मुनि को) पडिमाहन कर (प्राहार के निये) खडा कर दिया । स्त्रियां अपने घर से बायणा (लाहना) लेकर जहां महा मुनीश्वर अहार में रहे थे, भाई तथा जसवती, गुणवती, जिनयती तथा चौथी गुभवतो चारों नारियों ने मन में निदान (उस प्रहार का अनुमोदन) किया और तुझे धर्म भाव में देखकर वे चारों स्त्रियां तुझ पर अनुरक्त हो गई ।।५३१-५३२।। चरी - आहार करने की क्रिया।
। ५३३-५३४ । मुनहि प्रहार एक कदाण, भई घणी से घरिरिणी सियाग । पुण्ण पहाउ एक जिरणवस, मुरिणहि दाणु बोनउ पमिति ॥