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जिणवत्त चरित
सेठ ने (फिर) कहा, "दैव ही बड़ा निकृष्ट है, उसने एक बार भी जिनदत्त को नहीं दिखाया । तब सेठानी उसको समझाने लगी "हे नाथ अवसान है समय हृदय को दृट करो !!४६।।
[ ४६३-४८४ ] तूटउ ....... सामिय वह तणउ, अमसु निवेदिउ जिउ प्रापुरणउ । अब जिण सरणु अउर नहीं कोइ, जो...बह सो सामिप होइ ।। फुरइ एपणु प्रर चित्तु गहगहइ, जाणउ पूतु प्रागमणु कहइ । पर (इह) संकट दोसाइ सोइ, ओ भावइ सो सामी होइ ।।
पर्य :- "हे स्वामी (अपने दोनों) या दुरव वा हुना है (दूर हुश्राचाहता है) में अपना जी (विचार) अवश्य निवेदन करेंगी । अव तो जिनेन्द्र भगवान के अतिरिक्त कोई शरण नहीं है । हे स्वामी! जो (भगवान ) ने देखा है वही होगा" ||४८३।।
"आँखें फटकती है तथा चित गदगद (लकित) हो रहा, मानों यह सब पुत्र-प्रागमन कह रहे हो। किन्तु सामने वह संकट विझता है, इसलिये जैसा परमात्मा को स्वीकार होगा, हे स्वामी! वैसा ही होगा ।।४६४॥
[ ४८५-४८६ ] हमु कारगि रण मारघई लोग, मरज पूठ ज धरि सोगु । इय चितेरि दुविह संज्ञासु, ले विण पालिय पर दल पासु ।। सेठिहि चलित नु ...... इ राज, नयर लोगु चित भयउ विसमाउ । मेठि संघात बहुत जण चलहि, पुणु जिणवत्त कटक पइसरह ।
अर्थ :-- "हमार कारण लोगों को बे मत (न] मारें। (क्योंकिजिसका) पुत्र मरा (उसी के घर में पोका हुना। इस प्रकार चिन्ता