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जिरणदत्त चरित
। २४६-३५० । साधु लागि सिरियामति पाई, कोच संति करि म्हारी माइ । उहियत, तिन्ह कूटणु लय, सिरियामती कोयु ईडियउ ।। बलिउ परोहणु रहिउ उम्र ठाउ, वीप दिलाउलि लागिउ जाइ ।
भवियह सुबह सती सतभाउ, दुइसइ उपचासे भउभाउ ।। :: अर्थ :-- (यह सोचकर) समो ने श्रीमती के पाँव पकट लिये तथा निवेदन किया, "हे हमारी माता! अपने क्रोध को शान्त करो।" वे जब सागरदत्त को मारने लगे तत्र श्रीमती ने कोध त्याग दिया ॥२४६।। .
जहाज उस स्थान से चला और एक द्वीप के वेलाकुङ (बंदरगाह पर जा लगा। हे भविको ! सनी का सत्यभाव सुनो। इसके २४६ भेद हैं ।।२५०11
विलाउलि -चेगाकुन – बन्दरगाह । भत्रिय -भविक - मुमुक्षु ।
[ २५१-२५२ . . . कहइ रह महू यह संभवई, .....सु सोनु ता सजि संभवई , भण जिरायत्त पंच पय सरण, जव जलहर मनि प्राय उपरणु ॥ मह निर्णिच सामी की प्राण, लिउ प्रणसगु किगु जाहि पराण । मह जिन सुमरत आहि पराण, होई जीव पंचम गह ठाण ।।
. अर्थ :-जब जिनदस सागर में से ऊपर पाया तो उसने कहा, मुझे पंचपरमेष्ठि के पदों की शरण है । रल्ह कवि कहता है कि यह सब शीलश्रत पालने से ही समय हुआ है । ।। २५.१ ।।
मुझे जिनेन्द्र स्वामी की सौगन्ध है । मैंने अनशन का निश्चय ने लिया है को न चाहे मेरे प्राग चले जाएं । यदि जिन भगवान का