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जिरायत चरित
और द्रोह (कृपापूर्ण स्नेह) को एक सा दिखा दिया जिससे राजा हँसता
हँसता बावला हो गया ।। ३२६ ।।
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छंद - हृद्म ।
वाउ ! वातूल- बावला, पागल ।
[ ३३०-३३१ I
तूठउ राजा निज चित्ताव मागि मार्गि वावरण
कउरगइ एकु सभामइ कई विमल सेठ की तन्धो धोय, इतौ नारि खुला एहु तबहि
बात एकु को कारण रही बिहारि देव तपु
गुशाई
बासणु
पसाउ
अह ।।
लीय ।
देहि ॥
अर्थ :- राजा अपने चित्त में सन्तुष्ट हो गया तथा प्रसन्न होकर बोले से कहा, " पुरस्कार माँग पुरस्कार माँग 1" ( तब तक ) सभा में किसी एक ने कहा, "एक बात का क्या कारणा है ? ( यह बीना बताए ) " ||३३०||
"हे देव, विमल रोल की तीनों लड़कियां तप (व्रत) लिये हुये ( मन्दिर में ) रह रही हैं। यदि उन रित्रयों को यह वृला सकेँ, तभी अब इसे प्रसाद ( पुरस्कार ) का वस्त्र में ||३३१॥
[ ३३२-३३३ |
की पाषरण काठ की घडो, को ले अक्षर की ते सवासी भरइ वेव माणुस कि इसहि,
की ते चित्त लेपसी खड़ी | भरगइ राउ ते हहि माणुसी ।। मेरह बोल पाहूणु हँसइ । तव मे देष तिनि सोखी कला, जो न हसाउ पाहणु सिला ||
अर्थ - ( बौने ने पूछा ) "क्या वे प्रस्तर अथवा काठ की गढ़ी हुई है ? अथवा क्या वे चित्र के लेप से खड़ी हुई हैं क्या वे अप्सरा है, अथवा क्या वे ब्रह्मणी [?] हैं ? " ( तब ) राजा ने कहा, वे मानवी हैं" ।।३३३।।