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जिणवत्त चरित
[ ४५४-४५.५ }
करपइ गरहिउ उठवहि घाट, क ( उरगड ) राम विखालहि वाट | डूसह राज रंग को अंगवड, नासु कहइ मी चक्कबद्द ॥ भाजहि नयर वेस बिमल , पर एक भउ वि असिम सहि । भाले कटक किए बहु रोल, प्ररिमंडल मन्यि हृल कसोम ॥
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(पर्क कर सकता था ?
तथा कौन राजा उसे मार्ग दर्शन करा सकता था ? उसके दुस्सह तेज को कोई भी सहन नहीं कर सकता था, और उसे जैन चक्रवति का नाम लेकर कहने लगे थे |४१.४ ।।
नगर एवं देश के लोग भगाने लगे तथा शत्रु भी उसकी तलवारों का वार नहीं सहन कर सकते थे । उसकी मेना भारी पोर करती हुई आगे बढ़ी जिससे मंडल के मन में वह शोर हिल गया ( व्याप्त हो गया ) | ||४५५।।
[ ४५६-४५७ ]
कोठा करत जोडि मोसर, जाइति मगध देशा पइसरहि परिजा भाजि गई नहि राउ, वेदिज
सरे वसंतपुर ठाउ ॥
परिजा (भाजी) गढह महंत लागी पउलि तिज भेजंत । भयउ ढोकुलि पर गोफणी, रचे मारा कहु साँसे धरी ॥
अर्थ : डाटा करती हुई सेना चली और वह मगध देश में पहुंच गई सारा बसंतपुर नगर सेना से वेष्टित होगया । प्रजा ( भागकर ) बड़े किले में चली गई। पॉलि लग गई ( बंद हो गई) और मंत्र खडे हो गये । ढीकुली (ठेकुली) और गोफरणी हुए लगाए गए ) अनेकानेक शिरस्त्राण रचे गये १x६-४५७।।
और मार करने के लिए
बैद / वेंष्टिय प्राच्छादित करना ।