________________
व्रत से भेंट
१४५
[ ४६१-४७२ ] भरण्इ दूत सरगाह सुरोहि, परजा बंध म अपजस सेहि । महिं सिव जूझ समरि हुइ काहि, लेहि दंड सामिय घरि जाहि २ रण लिउ दंड णु देस कुठार, ना लिउ सहण प्ररयु भंडार । तुम्हरइ एयर जि वरिषयक ग्राह, सो मोहि देउ जोउदेव साह ।।
मई :- दूत ने कहा, "हे मरनाथ ! सुनिये प्रजा को बांध कर अपयन न लीजिए । मुझ से युद्ध में लड़ने से अया होगा । हे स्वामी ! (ग्राप) दंड लेकर घर जाइए ।।४७१।।
(जिनदास ने कहा, "मैं दंड नहीं लूगा न देश कोठार (खजाना) लूना और न मैं सहन तथा अर्थ मण्डार लूगा । तुम्हारे ही नगर में जो वणिकवर है उम जीवदेव साहु को मुझे देदो" ॥४५२६॥
[ ४७३-४७४ ] धम्मनिहाणु जीवरेउ सेठि, अरु नित नंबई पंच परमेठि । नयरहि मंडणु सुख सहाउ, परतसु जियत न अप्पा राज ॥ भणइ सउ किम पहिले चऊ, भाजि जु मयहि कुइ सावऊ । अाज प सेठि प्राउ मो ठाउ, कल्हि नपरि का दांपत राज ।।
अर्थ :- (दूत ने कहा) "वह जीवदेव सेठ धर्म निधान है तथा नित्य प्रति वह पंच परमेष्ठि को नमस्कार करता है । वह नगर का मंडन और शुद्ध स्वभाव का है पर उसे राजा जीते जी नहीं अपित करेगा ।।।४७३॥
राजा (जिनदत्त) ने कहा, फिर पहिले केमे कहा ? । प्राज उसे नगर में कोई नायो। यद आज सेठ पेरे स्थान पर नहीं पाया तो कल नगरी पौर राजा को नागा ॥४॥४॥
नवरी नगरी
१ मृनपाउ 'कानि'