________________
जिणवस चरित
साइ । सई-स्वयं । सुइर स्मृ - स्मरण करना । हाथ 2 हरितन - हाथी ।
पागल हाथी को वश में करना
। ३५३-३५४ ] मुगिह मेडक हउ दिख तोहि, गयबरु भसाउ ति सौंहो होहि । गयवर वोह कोह व (लि) वंड, जिरणवत्तह निरखे भुज पंड ।। क्यसित हापि प्रकावसि धरत, चक्क भवणु लइ गयवरु फिरिउ । हाकि वीर बोला मुनिबाण, अरे वेड़ तौहि य हर पाराणु ।
अर्थ :-- (बौने ने हाथी कहा, "सून, मैं तुझे भीरु देख रहा है। यदि तू भला और श्रेष्ठ गज है तो मेरे सन्मुख हो । उस बलत्रान गजेन्द्र ने मार्ग दे दिया जब उमने जिनदत्त के मुजदंर को देखा ।। ३५३।।
प्रविष्ट होकर उसने हाथी को पकड़ा तो हाथी उसको चन-भवन लेकर लौट पड़ा । वीर (जिनदत्त) उसे हांक करके निदान बोला, "अरे सेवक, तुझमें यही नारण (बल) है" ।।३५४॥
भेडक -- भीरु, कातर। दीह / वीथी-रास्ता, मार्ग ।
।
३५५-३५६ ।
सुडि पूछ धरि देखउ तोहि, गमयर भलो सिसौहउ होहि । नजि पूष जज परिउ तुरंतु, भव लावत लपच जिणवत्तु ।। पहरु एकु धरि फेरित जान, खेव विषण भर गयवरु ताम । महि गपवर की गड्रिी गाज, जहि गयवरु भय पिरथी भाज ।।
___ अर्थ :- (जिनदत्त ने कहा,) तेरी सूड एवं पूछ पकड़ कर देखूगा । श्रेष्ठ गज, यदि तू मन है सो सम्मुख हो ।" उसने शीघ्र ही जब हाथों को