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जिरणवत्त परित
अर्थ :-"नगर में पटही वन रही थी कि हाथी को वश में करने वाला कन्या को विवाहेगा। हाथी को बौने भाट ने पकड़ा है और अब मैं उठ कर अपने मार्ग को जाता हूँ' ।।३८०।।
मंत्रियों का हृदय कांपने लगा तथा उन्होंने कहा, "हे देव ! समस्त विचार फूट (बुरा) किया है । प्रानो पुत्री को हमें देकर कुचाल मत चलिए कोली के लिये देवल में मत गिराइए ।।३८१।।
हाथ हस्तिन - हाथी।
[ ३८२-३८३ ] प्रबरु भगइ देव अंसी कीश, लिप राइ एक कह दाज । मेरी वात जिरण करहु संदेहु, फुड वयणु भइ अखिउ एड्छ ।। जइ पहु कइसई पीय न देउ, तर यह सयलु अंतेउरु लेइ । राजा मंतिहि समुद वहाइ, नयत आधुणी प्राणु विवाद ।। __अर्थ :-वह फिर कहने लगे, "हे देव ! ऐसा करिये । इस कन्या को एक राजा को दीजिए । मेरी बात में पाप सन्देह न कीजिए: मैंने प्रापसे स्फुट (स्पष्ट) बचन कहा है" ॥२८२।।
"अदि हे प्रमो ! किसी प्रकार लड़की को नहीं देते हो तो सात अंतःपुर यह (ऐसे ही) ले लेगा (करेगा)" राजा ने मंत्रियों को विदा किया और अपनी नगरी में उसने माझा दिलाई (प्रमारित की) ।।३६३।।
[ ३८४-३८५ ] भंती रहे ह्यिइ फरि संक, राजा कइ मनि पइठी संक । बार वार भए गह्यिइ कोइ, अति करि मथियउ कालकुट होइ ।। सह फरायड सोरघु गंधयु, पृथ्वइ राउ कहत रु सम्बु । तुह कउ प्रारिण जिणेसर सरणी, फुडी बात कह सब मापुरणी ।।