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जिएवत्त चरित
सुरण तू राइ प्रसोगह थीय, जागत बहुल रयण सो भईय । थोषु एक बोलहि स भणी, हूं जागड तू सोबहि घरणी ॥
अर्थ :- वहां जिनदत्त प्रघाकर (थक कर) सोने लगा तथा एक पहर रागविराग में व्यतीत हो गया | जब दूसरा पहर हुआ तो उसे प्रतोष (संतोष) हुआ और वीर (जिरणवत्त) जाग कर सता या बोला ।।३०१॥
"हे राजा अशोक की पुत्री ! तु मुन : तुझे, जागते हुए बहुत रात्रि हो चली है । मैं तुझसे एक बात कहता हूं कि अब मैं जागता हूँ और तू खूब सो जा" ।।३०२।।
राउ – राग। विरल – विराग । रमण - रजनी।
[ ३०३-३०४ । पिय बालहे भुहि मो बास, अवधिउ बोल म बोल हि कत । पिय दुसु दइजु घरणी सुखिपाद, तह पतियार प्रहलउ जाइ । सती निरीने नाह सुजाण, सामी प्रागह वेहि पराए । सुरिण साई मेर जु भत्तार, नाहि मोहि घडइ इतिवार ।।
अर्थ :-(स्त्री ने कहा.) "हे प्रिय यल्लम ! गेरी बात सुनी; स्लीटे बोल हे कान्त, न बोलो। जो भित्र (पति) को दुरन देकर घने सुन्न उठाती है उसका पतियारा (विश्वास) निकल जाता है ।। ३०३।।
गली वह है जो (अपने ) मुजान (नाघ) के सामने (अपना अस्तित्व मिटा दें और जो स्वामी के मार्ग प्रागा दे । हे स्वामी सुनो; "तुम मेरे भसार हो, (विन्तु आपको बातों पर) मुझे एतवार (निवास) नहीं हो रहा है" ।।३०४।।
नई तुम्हि जागत अवसुख होस, लो मुहि लोगुण सलहहि कोइ । बालम पाछ। करहि कुकम्मु, ना तिनु तिरिय वीपुमा अम्मु ।।