________________
सागर पार करना
कुलबह किट्ठर कहा चित भरह, कुभो नरक पापोया पहि । उपरत बोला मूह दया, यह रोवहि पर धीमहि नपणु ॥
अर्थ :-सागरदत्त ने कहा, "हे सखी, उसका शोक मत करो । मेरे साय तुम राज मन मोगो।" जब सागररत के ये वचन उसने सुने तो श्रीमती ने मुग्ड को हाथों से ढक लिया ।।२४५॥
श्रीमती ने कहा, "कुल-वधू के विषय में मुमने चित्त में कैसी भावना धारण कर ली है ? हे पापो ! तुम भीपाक नर्क में पहोगे।" सागरदस ने फिर उससे मुखकारी वपन कहें, “तुम बहुत से रही हो, अब नेत्रों को धर्य दो ॥२४॥
धीम् -- धैर्य देना।
। २०७-२४६ 1 अा असहर माह सतो सतभाउ, तो यह र परोहा जाउ । उहि सत जलदेवी उछलाह, उछलो परोहणु बोलहि महि ।
गजमाप लाग्यो बोहिय, किउ बरिणजारिह मंत उचित । चरिणयक सयस परेपर भरहि, श्यो बोहिषु इज करा ॥
अर्थ :-(बह प्रार्थना करने लगी) यदि "लहरों में सती का सत्यभाव हो तो यह जहाज डूब जाबे ।" उसके सतीत्य के प्रभाष से जलदेवो उछल परी और उछल कर मन में विचार किया कि अहाज दुवा दे ।।२४७।।
वह वाहिष (जहाज) गमगाने लगा । तब व्यापारियों ने एक उचित विचार किया तथा वे म्यापारी परस्पर कहने लगे, "यह जहाज इसी प्रकार के कार्यो मे डूब रहा है ।" ।।२४८।।
सतभाउ - मश्य माव। परोहण --प्ररोहरण, सवारी। दोल् - नोहय् -डुबाना। मंत्र -मंत्र - मंत्रणा । परंपर – परस्पर ।