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जिरणदत्त चरित
कायर मारु मार पभोहि, गडवड़ कर समव जिम मेहु । उन्नति करि गहि अपमाण, विहडि जाहि दोसहि. न मिपारण है।
अर्थ :-वे ललकार कर कपट भाव में बोले, "यह वप्पृष्ठा (असहाय) जाने न पावे, इसे हम मारेंगे। यह रत्न-निधान (रत्नाकर) है जहाँ मृत्यु रहती है । इसके जल को पार करने के लिए तुझसे किसने कहा है ?" ॥ २६१ ।।
थे कायर जन मारो मारो कहने लगे । जिस प्रकार समुद्र में मेघ गर्जना करते हैं, उसी प्रकार उमड़ कर वे अप्रमाण (अपरिमित रूप में) चिल्लाने लगे । “ यह विघटित हो जाए (टुकड़े २ हो जाए) और यह जलाशय समृद्र में दिखाई न पड़े ।। २६२ ।।
हुइ – हुति - मृत्यु !
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२६४-६६५ ।
महिलइ मारण बोला जोइ, सो मरई चित मणुसु न होई । मारि जु पाछई मारणु कहर, सोनि बोरु मुणसाद लहद ।। फहद जिदत छुरी करि तोलि, माबहु प्रज्ज ने मारउ बोलु । - तौ न मुरणसु जौ अंसी करउ, मारि छुरी यह दिह वित्यरउ ।।
अर्थ :-जो मध्य में ही गारने के लिये कहता है वह चिन्ता करके मरता है नथा (पृन:) मनुष्य नहीं होता है। पहिले मार करके जो पीछे . मारने के लिये कहता है, वही वीर मनुष्यता प्राप्त करता है। ।। २६४ ।।
छुरी को दिखला कर जिनदत्त ने कहा प्रानो, मारने के बोल मत बोलो | जो ऐसा नहीं करेगा उसे छुरी मार कर दशों दिशाओं में फेंक दुगा ।।। २६५ ।।