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जिनदत्त जन्म
सहिय समारिणय तहो भरिणय इम जंपा सुतधारी । तासु रूप पुण वणियज कर रल्ह मुषिचार ।।
अर्थ :-उस सुन्दरी नयनाभिराम [प्रांखों की पुतली के समान] हंस गति लिये हुई, क्रीड़ा करती हुई, सरोवर के तट पर बैठी हुई और जन से खेलती हुई, प्रकट रूप राशि को मैंने देखा। उसकी सखियां और समवयस्काएँ भी उसके अनुरूप थी, ऐसा सूत्रधार ने कहा । “[तदन्तर] रल्ह कषि कहता है कि वह विचार करके उसके रूप मौर गुण का वर्णन करने लगा।
राणायणपुत्तार - अखि की पुतलो। कोलमरण - क्रीडमाण । पयन - प्रकट । सहिय - सखिन् । ममारिणय - समान+इक-समवयस्का ।
मुंदरिय सह कसु सोहइ पाउ, चालत हंसु ' देउ तसु भाउ । जाणू पान विहितहि घणे, तहि अपरि नेउर वाजणे ॥ सबई वष्णु सोहइ पिंडरी, अम् हि ते कुंथू पिडरौ । जंघ जुयत कदली अपरइ, तासु लंक २ मूठिहि माइया ।।
अर्थ :- छल्लों से युक्त उसके पैर सुशोभित थे। उसको चाल हंस को चाल का माव प्रगट करती यो । घुटनों के नीचे के स्थान टिकोरणे बहुत घने न्य और उन पर बजने वानी नेचरिया थी।
उसकी पिपलियों में सभी वर्ण शोभित थे, मानों वे कुषु (मनुष्य विशेष) की पिंडलियाँ हों । उनके अपर कदली के (सने के) समान उसको युगल जाँचें थी और उसकी कटि मुट्ठी में समा (भा) जावे ऐसी क्षीण थी।
कुथु - एक पौराणिक गजा, मनुष्य विशेष ।
१. हा - मुलपा। २. लोक – मूलपाठ ।