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जिरणवत्त चरित
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१६१-१६३
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चहिउ सुखासणु मायरदत्त , पायउ अहि सोइ जिणवत्त । भण ए (कइ) पूधियज उठाइ, महो वीर तू सोहि काई ।। णिपमणि पोर राइ पयपाइ, तो जिणवत्त, भणा विहसाः । ह तहु अलउ निठाले वण, तुम्ह तौ पाए कारण कारण ॥
अर्थ :--(इतने में ही) सुखासन (पालकी) पर बैठ कर वहाँ सागरदत्त प्राया, जहाँ वह जिनदत्त सो रहा था । (उसके) एक जन (सेवक) ने उसको जठा कर पूछा "हे कीर ! बयों को रहा है ।१६।।
अपने मन में वीर का राज पद प्राप्त करके वह जिनदत्त हंस करके ओला "मैं तो निठल्ली स्थिति का है; तुम यहां फिस कारण प्रावे हो ?" ||१६२।।
। १६३-१६४ ] हाथि जोडि तो नाइकु भणइ, हूं प्रायो वाडी घेखणाई । तउ जिणवत्त भणद वियसाद, पुर की वाडी दोसइकाइ । कारण स कौन केम गह गही, मुणिउ न सूफि जेमु यहरही । धनु परिमणु मो घरह बहुतु, पर पंथो घर नाही पूतु ।।
प्रयं :हाथ जोड़ कर तब नायक (सागरदत्त ने कहा "मैं बाड़ी (बगीचा) देखने के लिये माया हूँ ।" जिन इत्त तब विकसित हो (सकर) कर कहने लगा "तुम्हें पुर की याड़ी में क्या दिख रहा है " ।।१६३।।
कौन (स्या ) कारगा है ? किस प्रकार यह मानाद है ? यह सूत्रो वाडी कसे ही हो गई यह मैं नहीं जान पापा । मेरे घर में धन और परिजन ना बढ्त हैं-किस्तु हे पश्रिवः । पुष नहीं है ।।१६।।
वियस - विकस् – विकास करना ।