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जिगवत चरित
धर्मं पुत्र कह के मान्यता दे दी। उसके शरीर सुख के लिये पूर्ण व्यवस्था कर दी ताकि वह समुद्र पार व्यापार के लिये न [ जावे | ।। १७६ ||
प्रसरालु - निरंतर ।
अंवराउ - राजि ।
आलु - जोर शोर का
वालु - इन्द्र +
१७७-१७८
एतहि खरिण अणिवर सामहहि, ता जिरगदक्ष हिराज गहगह । हाथ जोडि पुणे पूछह बात हमहू वरिगन पठाबहु तात ॥ वहिदत्त बोल सुह पेखि, पूल वियोग रग सकउ देखि | हमि तुम्हि एकहि जदयो पूत, जिम लइ आहि रथ बहुत ।।
अर्थ :- इतने ही में कुछ बड़े व्यापारी यहाँ सम्मुख आए, जिससे जिनदल को हृदय गद्गद् हो गया। हाथ जोड़ कर सागरदत्त से उसने निवेदन किया, कि "हे बात हमें भी व्यापार करने भेजो " ॥ १७
सागरबत्त उसका मुख देख कर बोला, "मैं पुत्र का वियोग नहीं देख सकूंगा । हे पुत्र, हम और तुम एक ही ( साथ) जाएंगे, जिससे हम बहुतेरे रत्न लाएँगे" || १७८॥
पेस् - प्र + ईक्षु - देखना ।
व्यापार के लिये प्रस्थान
i १७६- १८० }
वहिदत्त घाल जिदत्त, अनु-अनु वा सद्द सुकीठ वस्तु सह भरी जा पर तीर चारुदत्त गुणवत्त सुबत्त सोमदत्त घरण सिरिगण हरिगणु श्रासादितोथे हया सेठ की पुतु ॥३
दत्त ।
सयो बहूत |
महंघी खरी ॥