________________
जिरणदत्त चरित
एवं लोहे की भारी सांकल भी ली। इस प्रकार के व्यापारी मावधान होकर सते ।।१६१।।
ईर - प्रेरणा करना।
[ १६२-१९३ 1 माझ परोहणु रोपिउ बासु, तहि चडियउ मरजिया देसासु । माघे दीनी लोह टोपरी, नातर गौद्ध लेहि चांचरी ।। धुजा पताका पवण जब हपउ, जोयण साठि परोहण गमउ । दूत । चाय र चलिउ तुरंत, सुरा सेतु दीसह मु अगंतु ।।
अर्थ :-( उन्होंने देखा कि) मरजीवा ने प्ररोहरण (जहाज) के मध्य में बास खड़ा किया तथा उस पर वह (मरजीवा) सांस रोक कर पतु गया। उसने माथे पर लोहे की टोपी दे रखी यी नहीं तो उमे (समुद्री) गिद्ध अपने चोचों में ले लेते ३१६१।।
ध्वजा एवं पताका जाल वायु से आहत हुई तब वह प्ररोहण (जलयान) साठ योजन चला गया । वे उस और उत्साहपूर्वक चल रहे थे और अनंत जल ही जल चारों ओर दिखाई पड़ता था ।।१६२।। - मरजिया - मरजीवक - समुद्र के भीतर उतर कर उसमें से वस्तुओं को निकालने वाला। दूत - दुत - वेग से
[ १९४-१६५ 1 दुद्धर मगरमछ घडियार, पारिणउ अगम , सुभाइ पार । जल भय कंपइ सयल ससेर, लहरि पर्यड भकोलइ नीर ।। घउहडाइ गाजई शु समुह, सउ जोपण गहिर जलउद्द । वूध निकरहि रहस मुह कोलि, जाराइ मच्छ न घालइ सोलि ।।