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जिरणवत्त चरित
पाव धूपद हियडा कोपह, मणुन 'रडई । हा हा दइया काहोभइया, पिउ पिउ पिउ कराइ । भायउ मरण नाही सरण, साइ कहा कराऊ । फंठारोहण वालि हासणु, झंपा देह।मराऊ ।। काठन कीयउ कसे जीबऊ, पिय विषु तेहि ।
हाइ बाइ गुसद सहि, छाडि कति गयज कंत मोहि ।। अर्थ :-वह हमगामिनी और चन्द्रवदनी (विमलमसी) प्रलाप करने लगी । "मेरे आगे से देखते देखते, हे नाध, आप कहाँ चले गये ।" वह दौष्ट धूप करती है । उसका हृदय कुपित हो रहा है तथा मन रुदन कर रहा है । हा हा देष, क्या हो गया ? (इस प्रकार रटते हुय) वह पिउ, पिउ करने अगी ।। १५५।।
" (अब) मेरी मृत्यु आ गयी है, किसी का शरण नहीं है, अब क्या उपाय करू ? कंठ अवरुद्ध हो रहा है, क्या अग्नि जला कर और उसमें कूद कर मरजाऊँ ? तुमने कष्ट दिया है है पति ! तुम्हारे बिना कैसे जीऊ ? हाय मरे. स्वामी कहां छोड़ कर चले गये ॥१५६॥
काठ - कट्ठ - कष्ट । माह – साति -- उपाय ।
[ १५७ । धारिसि जोवइ धाहहि रोवर, कहा किया करतार । वेसि घडतो पवित्यरंती, गउ सामी अंतराल । भई स दुखी काला मुखो, सासू सुसरे माइ । जिणदत्त गुसाईऊ प्रप्पाणउ, सायउ चल्ली इवहि गवाइ ।। ससु को कंतू सो जिणवंतू, लिसको सुनहु विचार । एकल्लज गयउ सो मु, भयउ पसपुर वारि ॥
अर्थ :-चारों दिशाओं में यह देखती है प्रथा चार मार बार रोती है,