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जिरणवत्त चरित
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१०७-१७
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कि यह बहा कि प णु, क य स क महमहणु । कि यह कब मयणु को खानि, किसु की कला मरीतइ प्राणि ॥ निसुनहि सेठि कहउ हउ विबरु, कहियद सो वसंतपुर नया । वसइ जीवधेत मुटय मंजुत, तिहि जिरणदत्त मनोहरु पूतु ।।
अर्थ :--(जव सेठ ने यह चित्र देखा तो उसने कहा ) "क्या यह ब्रह्मा है अघवा यह विष्णु है ? अथवा शंकर है अथवा मसूदन कृष्ण है अथवा यह रूप एवं काम (लावण्य) की खान है ? यह किमकी कना है जिसे हे दूत | स ले पाया है ? ॥१०७।।
उस अाहारा ने कहा, "हे सेठ सुनो मैं तुमसे विवरण के साथ कहता हूँ: उमे वसंतपुर नगर कहते हैं । उस नगर में जोवदेव सेठ सकुटुम्ब रहता है, उसका यह सुन्दर पुत्र जिनदत्त है।" ॥१८॥
तइ - तत्र,
महमहरा - मधुमयन-विष्णु, उपेन्द्र । स्व - रूप। सदा-वहां, उस समय । चरी - चरीय-परक-चर, इस ।
इहा हो तज गयउ सुतधार, जाट कही विमलामति नारि । तवहि बुलाइ सेठि मनु' कीय, पट्टय वररण तुहारी धीय ।। रिणय परियण लव लइ हकारि, पूछ। सेठि मंतु पइसारि । परिपणु भगइ विमल अस कोज, विमलमति जिरणदत्तहि दोज ।। ग्रहो कुटंब तुम्ह नोकत किया, इसवर बोस हम विगसह हियउ । धीय रूखडी कहा सो कोल, सा पर अयस सजण घरि बीज ।।
अर्थ :- [पुनः उसने कहा) "जब यहां से होकर मूत्रधार गया था, ५. मनू-मूलपाठ ।