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एते लएि जइ भ्रायो पूर्व,
संघ (इ) प्रत सुपत्तह् बीज,
करण पूरा तुम्ह पडिउ जूबा हारि होरिए न हु तिन्ह कहु पूत सइ जणु
जुबा हारिषि खोयहि दबू, वs खबंदि लछि पाइप, सा किमु पूतु अहि लायइइ
जइ यदा
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होणि - चिन्ता
जिरगवत चरित
अर्थ : उसी क्षण जब उसका पिता प्राथा, तो उसने कहा "हे पुत्र, तुम कौन से दुख में पड़े हो ? संपत्ति को सुपात्र को देना चाहिए किन्तु प्रब जुए में हार कर चिन्ता न करनी चाहिए ॥१४२॥
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जुए में हार कर जो द्रव्य खोता है। हे पुत्र ! उस पर सभी जन हँसते हैं। बड़ी कठिनाई से लक्ष्मी पाई जाती है उसे हे पुत्र ! किरा प्रकार कुमार्ग में लगाया जाय ? ।। १४३ ।।
जब 1
*४९-
पूञ वितृ -पिता ।
अपह
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बंदि कठिनता ।
संतानु ।
कोन ॥
सब्बु ।
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सुपत - सुपात्र ।
अपथ - कुमागे |
[ १४४ - १४५ ]
दोजइ होरा दोष कहु पूत, धम्मु काजि बेचियह बहूत । बाल कह बोज, अउर बछ संपय क फीज ॥
केंद्र हम समझा जिवायों जाम, देखि रहह तिस कवि उपाउ,
निगवत्त भयो परहस ताम । घर छाया को करें उपार ॥
अर्थ :- हे पुत्र ! हीनों (अपंगों ) एवं दीनों को देना चाहिए और धर्म कार्य के लिए बहुत कुछ (यदि आवश्यक हो तो) बेच भी डालना चाहिए । तथा ( चाहे उसे ) किसी बालक को दे दिया जाये किन्तु हे वत्स ! संपत्ति का और क्या किया जात्रे " || १४४ ।।
इस प्रकार अपने पुत्र को समझा कर जब उसने उसे जिमाया उस