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जिनदत्त जन्म
लावण्यपूर्ण और मारित ( सुडौल ) वह बालिका थी और एक हलको पट्टि उसकी सत्रा में थो। कानों में स्वां के एक-एक कुण्डल थे । तथा नाक मानों सुए (तोते की जैसी थी ।
माठी
माठित-मित । लोब चालक, बालिका ।
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मुह मंडलु जोबइ ससि वयणु, दोह् च नावइ मियार्याणि । जहि के हो वप चाले फिररण, जणु रि कसरी होरा मरिण खिरण || भउह ममरण धणु खतिय घरी, दिपछ मिलाट तिलक कंचुरी । सिर मांग मोति भरि चलई, श्रवरु पीठ तलि बिली रुपई ।।
अर्थ : चन्द्रमा के बदन के समान उसका मुख मण्डन शेखता था । वह मृगनयनी अपने दोनों को ने किये हुए थी। उसके शरीर से किसी न किसी प्रकार की फिल्मों (दीप्ति) निकलती रहती थी। उसके दाँत हीरामणि को कांति के समान थे ।
उसकी माँ ऐगी थी मानो कामदेव ने बतुप चढ़ा रखा हो। उसके ललाट का तिलक तथा हार (?) चमक रहे थे। सिर की मांग में मोतियों को भरकर वह चल रही थी और उसकी पीठ के नीचे तक वेणी हिल रही थी।" कंचुरी - कंकुली-हार |
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६६ - १००
रर जडी कंचुली ।
I नाद विनोद कथा श्रागलो, पहिरी safe fra की फिरसी, जिसु तणु वाहह विठि पसारि काम वार तसु घालइ मारि । तिष्ठ कौ रूपु न वण्णइ जाइ देखि सरीर मणु प्रकुलाह ।।
अवर
तह पहिर ग्राभरण ||
१. मोग- मूलपाठ । २ मूलपाठ - पटि । ३ मुलगा चि.रणि ।
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