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जिणवत्त चरित
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( वस्तु बंध ) कबड जिणि के वसह प्रणय चिति । नगु ज हर्गह प्रारहहि, गाठे मुठि तबकते मोबाह । मुगरिउ लस्ज विण, विसय मत न विरत्ति सोहि ॥ जिन्ह परदम्यहं मनु ठविण, अय बहि परनारि । तिन्ह हकारि वि सेठि निरु, कहिय बत्त व्य मारि ॥
अर्थ:-जिनके चित्त में नित्य कपट वमता है, तथा जो दुनियां को गाली देते हैं (दुरा माला कहने) तथा शोरगुल मचाते हैं, तथा जो (द्रुमगे की) मांट और मुट्ठी ताकते हुये देखते रहते हैं । जुनारी जन जो निलंज्ज होकर विषयों के भक्त होते हैं और जिन्हें वैराग्य प्रच्या नहीं लगता जिनका मन सदैव दूसरों के द्रव्य में स्थित रहता है तथा जो दूसरों की स्त्री की वां छा करते रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को सेट ने बुलाने एवं बैठाकर (अपनी) बात करने का निश्चय किया।
कवड़ - कपट । र । हँड / भण्ड - बुरा कहना, गाली देना। पारड् / प्रा+रट् – चिल्लाना, शोर करना । हकारि – बुलाना । मत्त । भक्त। नि: – निश्चित रूप से । विरत्ति -- वैराम्प ।
[ ६९-७० । नवहि सेठि मंतु परिठविउ, चुनारीहत हमकारत गपड़ । मठ भट जो न कहि बहु काण, ते सतु सेठि बुलाए जारण ।।
भार बार वेमा घरि आहि, अरु जूवा खेलत न अघाहि । भोरी करत न पालसु करा, गांठ काटि अंतराला धरइ ॥