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जिनदत्त-जन्म
उज्झाउरि - उपाध्याय कुल-विद्यालय । लखरगु - वक्षरण । तक्क - सर्क। मुगण - जानना । बिरति - बैराग्य-प्रध्यात्म ।
1 ६५-६६-६७ ।
लिखत पत सौखिउ प्रसुरानु, जोतिषु संत मंतु सब साए । छुरो सपनु परू खंडागर, सोखी सयलु कता बहत्तरु ।। भउ जुवाणु मह सुद्धि सहाउ, लगातु बउ पम्मु कर भाउ । सीत गुरु मा किमा. शिव पर भाव न घरइ ॥ देखिऊ पूत तण विवहारु, भगद सेठि कुल भूउप हाए । पूत विषय मनु लगु ण तोहि, कैस बस विद्धि हुई मोहि ॥
अर्थ :-निरन्नर पढ़ कर जोतिष, नव शास्त्र और मंत्र का सब सार सीख लिया । समी प्रकार से छुरी और तलवार चलाना (मादि) समी ७२ कलायें उसने सीख ली ॥६॥
वह युवा हुना किन्तु वह स्व मात्र में शुद्ध मति का श्रा, इस अवस्था में भी वह लज्जागोल था तथा उसे धर्म का मात्र था । वह शीलदंत कुल की मर्यादा के भीतर आचरण करने वाला था तथा विषयों पर ध्यान नहीं देता था ॥६॥
पृप का ऐसा) व्यवहार देखकर सेठ कहने लगा " (मेरा) कुले इसके कारण बने वाला है। (पुत्र मे, उसने कहा,) हे पुत्र तुम्हारा मन विषयों में लग नहीं रहा है, अत: मेरे वंश की वृद्धि कसे होगी" ।।६।।
संत - तंत्र
मंतु - मंत्र
- खंडागरु
असरानु - निरंतर नलवार ।
जुवागु - वुवा । मइ - मति 1 लजालु - लज्जागील । च - पुष्-शरीर अवस्था । बमविद्धि - बंश वृद्धि ।