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जिरणबस परिस
[ ५५-५६ ]
गृह कारणो सामिय जिरणसुत्त,
सत्यु पुज्ज गुरु पूज्जिउ भत्ति, मुमिवर पाइ पड़ी तिहू पति । मह होइ इह मुरिंगवरु भए पुत ॥ जिरण सेडिरिंग हिडइ बिलाहि । कुल मंडणू तुष होस पुत्तू ॥
हाथु देखि मुनि बोलड़ ताहि, प्रखरण बत्तीस कलर संजूत्त,
अर्थ :- शास्त्र की पूजा करके शीघ्र ही उसने गुरू की पूजा की तथा ( तशतर) उसकी पत्नी मुनि के पांव पड़ गईं। ( उसने कहा ) हे स्वामी आप जिनसूत्रों (आगमों) को जानने वाले हो । मुझे पुत्र हो, हे मुनिवर, ( श्राप) यह कह (आशीष दें [ अथवा क्या मुझे पुत्र होगा, हे मुनिवर, आप यह बनाएँ | ।। ५५३
हाथ देखकर मुनि उस समय बोले "हे सेठानी हृदय में दुखित मत हो । बत्तीस लक्षणों एवं कला से युक्त एवं कुल की शोभा बाला पुत्र तुम्हारे होगा ।। ५६ ।।
सत्भु - शास्त्र । पति - पत्ती-पत्नी- मार्या । झट- शीघ्र ।
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सेठिपि सगुणु गाठि गांधिवउ, मोसिस मुणिवरु कहिउ गणेगु,
सि - झटिति -
५७-५८ ]
शिम घर जान महोछउ कोय | तूठी सेठिरिए माइ सा अंग ||
पुपु अलहादी बोल सोय, रिसि भासियड मभूठि होय । हि आरबिउ वोल साहू, पिव होसइ मणु वित्ति बचा ।।
अर्थ :- सेठानी ने उस शकुन ( शुभ सूचना ) की गांठ बांध ली और अपने घर जाकर महोत्सव किया। गुणों के वारी मुनिवर ने मुझ में इस ( प्रकार ) कहा है "इससे प्रसन्न नेदानी अपने अंगों में समा नहीं रही थी ||१७||