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जिtraत्त चरित
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श्रवण जिरगवर बंदियह, ऋणु विष्णु सेठि श्रप्पु गिदिय । पर पसंसु कर जो भव्वु, बेद धारण मरिण परि हरि गणधु ||
अर्थ :- ग्रह सेठ श्रमण वदना करने लगा तथा प्रतिदिन दूसरों की प्रशंसा करता है तथा मन से गर्व को दूर कर दान देता है ।
अ - कहना ।
भगवान का नाम लेने और जिनेन्द्र क वह अपनी निन्दा करने लगा । जो भव्य
पसु - प्रशंसा ।
श्रवण
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श्रमण भगवान ।
परह-दूसरे की ।
। ५१ ।
जोवस्था जो ग्रह निसि करs पंचानुव्यइ निम्मल परइ । पुरणवय तिष्णि सिखवय चारि, मुत्ति स्वयंबर व नारि ।।
अर्थ :- जो रात-दिन जीव दया पालन करता है, निर्मल पंचाणुव्रत को धारण करता है, तीन गुणवतों और बार शिक्षाव्रतों को ( जीवन में उतारता है) मुक्ति-मारी स्वयं आकर उसका रक्षा करती है ।
यह निसि - अहः निशि । पत्रानुस्वई - पंचा।"
निम्मल निर्मल | गुरदम - गुणवत
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तिष्षिण - श्रीणि । सिग्ववय - शिक्षाव्रत ।
हिमायत सत्यायन श्रचीयरगुव्रत, ब्रह्मचर्या व्रत एवं परिम परित ये पांच कहलाते हैं ।
★ दित, देश एवं
ये तीन गुणवत हैं ।
सामयिक प्रोषधोपनास, भोगोपभोग परिमाण एवं अतिथि संविभाग
ये चार शिक्षागत हैं ।