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जिरणवत्त चरित
(स्तु बंध)
४५. ] सुवण रंजणु धम्मु गुण वारिए । परिवारई सोहियउ बेइ, वाण जिगरगाह पुज्जन । सपल मोब करणा फरक, जीवदेउ तहि ठ छमाह । परणि सुहाइ वाम घरि, जीवंजय सुषिसाल । सरण किति सिन्ह रह कर, भमिय पुहमि प्रसराल ।
प्रर्म :-वह सभी सवरणौ (उच्च जातियों का प्रिय था तथा उसकी पाणी घमं एवं. गुणों से युक्त थी। वह अपने परिवार के साथ गोभित था, जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था तथा दान देता था। नत्र जोषों पर करुणा (दया) करता था, ऐसा वहाँ जीवद्रेव नाम का सेठ शोभित होता था। उसके घर में सुन्दर गृहिणी (धर्म-पत्नी) 'जीवंजसा' नाम की थी जो बहुत सुन्दर थी। 'रसह कवि' कहता है कि उनकी दान देने की प्रशसा सम्पूर्ण पृथ्वी तल पर निरंतर फैल रही थी।
असराल - निरन्तर । सुवणु - सवर्ण - उच्च जातियाँ । सयल -- सकल। छज्जा - शोभित होना। अमिन - फैलना ।
[ ४६ । जगह पीठि करावा वेलिं, जीउदेव तहि निवसद सेठि । जीवंजसा मामें तसु घरणि, रुब सुरेख हंस-गाइ-गमणि ।।
अर्थ :-दुखित जनों की पीड़ा को दूर कर बैठने (विश्राम लेने) वाला जीवदेव नाम का सेठ वहां रहता था । उसको स्त्री का नाम जीवंजसा था जो रूपयती, शुभ रेखानों से मंडित तथा हंस की चाल चलने वाली थी।