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मनोवैज्ञानिक इतिहास
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- इस आपत्ति से बचने के लिये न्यायवैशेषिकों ने योगियों की दो श्रेणियाँ मानलीं । एक युक्त दूसरी दुखान । जो त्रैकालिक पदार्थों का सर्वदा प्रत्यक्ष करनेवाले योगी हैं उनको युक्त योगी कहते हैं, और जो चिन्तापूर्वक किसी बातको जानते हैं वे युञ्जान* कहलाते हैं । परन्तु जैनदर्शन ने इस विषय में क्या किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है और इसी पर यहाँ विचार किया जाता है ।
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ऐसा मालूम होता है कि जैनलोग भी एक समय सर्वदा उपयोगात्मक प्रत्यक्षवाले [ युक्तयोगी ] सर्वज्ञको नहीं मानते थे । परन्तु पीछे उपयोग परिवर्तन का ठीक ठीक कारण न मिलने से समाधान के लिये इनने भी युक्त योगी माने । परन्तु युक्त योगी मानने से वार्तालाप उपदेश आदि भी नहीं हो सकता था इसलिये इनने उपयोग के दो भेद किये - एक दर्शनोपयोग और दूसरा ज्ञानोपयोग, और इन दोनों उपयोगों को स्वभाव से परिवर्तनशील माना । परन्तु इन उपयोगों के क्षणिक परिवर्तन से भी सस्था पूरी न हुई बल्कि गुत्थी और उलझ गई । इस समय दो उपयोगों की मान्यता तो मिट नहीं सकती थी इसलिये दोनों उपयोगों को एक साथ मानने का सिद्धान्त चला । परन्तु एक आत्मा में दो उपयोग एक साथ हो नहीं सकते इसलिये सिद्धसेन दिवाकरने दोनों उपयोगों को फिर एक कर दिया । गुल्थी को सुलझाने के लिये ज्यों ज्यों कोशिश होती गई त्यों त्यों वह और उलझती गई ।
* योगजों द्विविधः प्रोतो युक्तयुञ्जानभेदतः
युक्तस्य सर्वदा भानं चिन्तासहकंतोऽपरः ॥ ६५ ॥ कारिकावली