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चौथा अध्याय
मुक्तात्मा से कुछ विशेष अन्तर नहीं रखता, परन्तु मुक्ता होने के पहिले ज्ञान. तो आत्मा में रहता ही है, उस अवस्था में जो योगी सर्वज्ञ होगा वह कैसा होगा ? सर्वदा उपयोग रूपः याः कभी कभी उपयोग रूप ? त्रिकालत्रिलोकवर्ती पदार्थों का सर्वदा युगपत् प्रत्यक्षकरने वाले योगी की कल्पना तो एक अटपटी कल्पना है। क्योंकि ऐसा योगी किसी की बात क्यों सुनेगा ? किसी से, वह प्रश्न क्यों पूछेगा ? और उसका उत्तर क्यों देगा ? क्योंकि उसका उपयोग त्रिकाल त्रिलोक में विस्तीर्ण है, वह किसी एक जगह- कैसे आ सकता है ? सामने बैठे हुए मनुष्य की जैसे वह बात सुन रहा है उसी तरह वह अनंत कालके अनंत मनुष्यों अनंत पशुओं अनंत पक्षियों और अनन्त जलचरों के शब्द सुन रहा है । अब किसकी बात का उत्तर दे ? अमुक मनुष्य वर्तमान है, इसलिये उसकी बात का उत्तर देना चाहिये और बाकी का नहीं देना चाहिये-इस प्रकार का विचार भी उसमें नहीं आ सकता क्योंकि इस विचार के समान अनन्तकाल के अनंत विचार भी उसी समय उनके ज्ञान में झलक रहे हैं। तब वे किसके अनुसार काम करें ? इतना ही नहीं किन्तु 'किसं विचार के अनुसार काम करें' यह भी एक विचार है जोकि अन्य अनन्त विचारों के समान झलक रहा है। इस प्रकार सार्वकालिक सर्वज्ञ मानने में योमी लोग उपदेश भी नहीं दे सकते । इस प्रकार जिस बात के लिये सर्वज्ञ योगियों की कल्पना की गई थी उसी को आघात होने लगा। दूसरी तरफ अगर इस प्रकार के योगी नहीं मानते तो उपयोग के बदलने का कारण क्या ! इस तरह दोनों ही तरह से आपत्ति है।