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चौथा अध्याय
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मैं पहले कह चुका हूँ कि मीमांसक सम्प्रदाय ने वेदों का सहारा लेकर आत्मरक्षा की परन्तु वेदों को अपौरुषेय साबित करना कठिन था । बिना अन्धश्रद्धा के वेदों को अपौरुषेय नहीं माना जा सकता था । इसलिये न्याय-वैशेषिक दर्शनोंने वेदों मान करके भी उन्हें अपौरुषेय न माना और सर्वज्ञयोगियों से उनने प्रमाणपत्र लिया । परन्तु मीमांसक सम्प्रदाय न्याय वैशेषिक से प्राचीन होने से वेद को अपौरुषेय मानने की अन्धश्रद्धा को रख सका इसलिये उसे सर्वज्ञ योगियों की जरूरत नहीं रही ।
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परन्तु सांख्यदर्शन में इन दोनों विचारों का मिश्रण है । वह वेद को अपौरुषेय भी मानता है और सादिसान्त सर्वज्ञ योगियों को भी मानता है। हाँ, अनीश्वरवादी होने से अनादि अनन्त सर्वज्ञ नहीं मानता । मीमांसक सम्प्रदाय जिस प्रकार वेद के है उस प्रकार यह नहीं रहता । यह वेद को अपौरुषेय भी सर्वज्ञ योगियों की कल्पना करके अपने को मीमांसकों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित कर लेता है । सांख्यों की सर्वज्ञ मान्यता का एक कारण यह है कि वेद को अपौरुषेय सिद्ध करना कठिन है । अगर कर भी दिया जाय तो वास्तविक अर्थ कौन बतावे ? रामद्वेष अज्ञान सात मनुष्य तो वास्तविक अर्थ बतला नहीं सकता क्योंकि ऐसे पुरुष आप्त नहीं हो सकते । अगर अर्थ करनेवाला आप्त न हो तो उस पर कौन विश्वास करेगा ? सर्वज्ञ मानकर सीमांसकों की इस कमजोरी से सांख्यदर्शन बच गया है । और न्याय1 वैशेषिक तो वेद को अपौरुषेय माननेकी अन्धश्रद्धा से भी बच गये हैं ।