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चौथा अध्याय . सिर्फ विचार से निर्णीत वस्तु पर विश्वास करने को तैयार न थी। स्वरुचिविरचितत्त्व एक दोष माना जाता था इसलिये अपनी बात को प्रमाणसिद्ध करने के लिये अनीश्वरवादियों ने ईश्वर की सर्वज्ञता मनुष्य में स्थापित की । सर्वज्ञव आत्मा का गुण माना जाने लगा। अब ईश्वरवादियों के आक्षयों का समाधान अनीश्वरवादी अच्छी तरह से करने लगे। इसके बाद अनीश्वरवादियों ने भी ईश्वरवादियों से वे ही प्रश्न किये कि ईश्वर सर्वज्ञ है और जगत्कर्ता है यह बात तुमने कैसे जानी ? तुम भी तो ईश्वर को, उसके कार्य को, परलोक को, पुण्य पाप को देख नहीं सकते । इस आक्षेप से बचने के लिये अनीश्वरवादियों की तरह ईश्वरवादियों ने (जिनके आधार पर न्याय वैशेषिक योग दर्शन बने) अपने योगियों को सर्वज्ञ माना। इस प्रकार ईश्वर की सर्वज्ञता, अनीश्वरवादी योगियों में और ईश्वरवादी योगियों में बिम्बप्रतिबिम्ब रूप से उतरती गई । इस का कारण यह था कि सभी लोग अपने अपने दर्शनों को पूर्ण सत्य साबित करना चाहते थे ।
मीमांसक सम्प्रदाय का पन्थ इन सबसे निराला है। उसे एक तरह से अनीश्वरवादी कहना चाहिये, परंतु आस्तिक होने पर भी उसने सर्वज्ञ मानना उचित न समझा । जिस भयसे लोग सर्वज्ञ योगियों की कल्पना करते थे उस भय को उसने वेदों का सहारा लेकर दूर किया है। ... मीमांसकों की दृष्टि में वेद अपौरुषेय हैं, अनादि हैं सत्यज्ञानके भंडार हैं । जो सम्पूर्ण वेदोंका जानने वाला है वही सर्वज्ञ है। अनन्त पदार्थों को जाननेवाला सर्वज्ञ असम्भव है । इस चर्चा का निष्कर्ष