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चौथा अध्याय
बढ़ता गया है । जैनविद्वानों की मान्यता के अनुसार केवलज्ञान का अर्थ है - लोकालोक के सब द्रव्यों की त्रैकालिक समस्त पर्यायों का युगपत् ( एक साथ ) प्रत्यक्ष ज्ञान । यह अर्थ कैसे बन गया और यह कहांतक ठीक है, इस बात पर मैं कुछ विस्तृत और स्पष्ट विवेचन करना चाहता हूँ ।
सर्वज्ञता की मान्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास
विकासवाद के अनुसार, जब मनुष्ये पाशव जीवन से निकल कर सभ्यता का पाठ पढ़ने के लिये तैयार हुआ उस संक्रान्ति काल में और प्रचलित धर्मों की मान्यता के अनुसार जब स्वार्थ के कारण भ्रष्ट हुआ और आपस में लड़ने लगा तब कुछ लोगों के हृदय में यह विचार आया कि अगर हम स्वार्थवासना को पशुबल के साथ स्वच्छन्द फैलने देंगे तो मनुष्य सुखी न हो सकेगा । चोरों के हृदय पर राजा का आतंक बैठाया जाता है, परन्तु जब राजा लोग ही अत्याचार करने लगें तब उनके ऊपर किसी ऐसे आत्मा का आतंक होना चाहिये जो अन्यायी न हो, इसी आवश्यकता का आविष्कार ईश्वर की कल्पना है । परन्तु जिन लोगों के हृदय पर ईश्वर का आतंक बैठाया गया उनके हृदय में यह शंका तो हो ही सकती थी कि ईश्वर सर्वशक्तिशाली भले ही हो परन्तु जब ईश्वर को मालूम ही न होगा तब वह हमें दंड कैसे देगा ? इसलिये ईश्वर को सर्वज्ञ मानना पड़ा। एक बात और है कि जब एक दंडदाता ईश्वर की कल्पना हुई तब उसे स्रष्टा और रक्षक भी मानना पड़ा । अन्यथा कोई कह सकता था कि उसे क्या अधिकार है कि वह किसी को