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सम्यग्ज्ञान
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प्रकर्षता भी इसका नाम है। मैं जिस लेखनी से लिख रहा हूं उस में कितने परमाणु हैं, प्रत्येक अक्षरके लिखने में उसके कितने परमाणुसते हैं, मैंने जो भोजन किया उसमें कितने परमाणु थे, ओर एक एक दाँत के नीचे कितने परमाणु आये आदि अनन्त कार्य जो जगत में हो रहे हैं उनके जानने से क्या लाभ है ? उसका आत्मज्ञान से क्या सम्बन्ध है ?
किसी जैनेतर दार्शनिक ने ठीकही कहा है:
सर्वं पश्यतु । मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ॥
सत्र पदार्थों को देखे या न देखे परन्तु असली तत्त्व देखना चाहिये | कीड़ों मकोड़ों की संख्या की गिनती हमारे किस कामकी ?
तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमध्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृद्धानुपास्महे ||
इसलिये कर्तव्य के ज्ञानका ही विचार करना उचित है दूरदर्शी को प्रमाण मानने से तो गृद्धों की पूजा करना ठीक होगा।
ये श्लोक यद्यपि मज़ाक में कहे गये हैं फिर भी इनमें जो सत्य है वह उपक्षेणीय नहीं है। जो ज्ञान आत्मोपयोगी है वही पारमार्थिक है, सत्य है, उसी की परमप्रकर्षता केवलज्ञान या सर्वज्ञता है ।
सर्वज्ञता की परिभाषा के विषय में आज कल बड़ा भ्रम फैला हुआ है । सम्भवतः महात्मा महावीर के समय से या उनके कुछ पीछे से ही यह भ्रम फैला हुआ है जोकि धीरे धीरे और