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जैन-दर्शन के नव तत्त्व आचार्यश्री ने कहा-“पदार्थ (भौतिक वस्तु) और परिवार ही केवल संसार नहीं है। यह तो संसार का बाहय स्वरूप है। पदार्थ और परिवार का त्याग करने से संसार छूट गया यह मानना पूर्ण सत्य नहीं है।"
व्यक्ति पदाथों (भौतिक वस्तुओं) का परित्याग कर हिमालय की गुफाओं में जा पहुँचे तो भी जब तक उसके मन से पदार्थों के विषय में राग, द्वेष, आसक्ति, ममत्व और मोह नहीं छूटते, तब तक वह संसार से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि उस व्यक्ति के मन में, विकार और विकल्पों का संसार भरा हुआ है। इसलिए विकार और विकल्पों का परित्याग करना संसार से मुक्त होना है। क्योंकि संसार के जन्म-मरण का, भव-भ्रमण का मूल कारण रागद्वेष ही है। वास्तव में राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ ही संसार है। इनसे परावृत्त होना ही संसार का अन्त करना है।"
संसारी जीवों के दो प्रकार हैं :(१) समनस्क तथा (२) अमनस्क।
जो मन-सहित हैं वे समनस्क और जो मन-रहित हैं वे अमनस्क हैं।३२ जिस जीव में मन होता है उस जीव को संज्ञी कहते हैं।३३
मनुष्य, देव, नारकीय (नरक के जीव) और कुछ पशु-पक्षी संज्ञी अर्थात् समनस्क हैं। पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय, आदि एकेन्द्रिय, द्वि-इंद्रिय, त्रि-इन्द्रिय, तथा चतुरिन्द्रिय जीव असंज्ञी अर्थात् अमनस्क हैं।
चेतना के तीन प्रकार
(१) कर्मफल-चेतना, (२) कर्म-चेतना, (३) ज्ञान-चेतना। चेतना के तीन प्रकार हैं - (१) कर्मफल-चेतना :- स्थावरकायिक (हलचल न करने वाले पृथ्वी, वृक्ष आदि) जीव तथा इनके समान अन्य अनेक जीव कर्म के फल का ही अनुभव करते हैं। इस प्रकार के जीवों की चेतना को 'कर्मफल-चेतना' कहते हैं। (२) कर्म-चेतना :- त्रसकायिक (हलचल करने वाले यथा- कीट, चींटी, मनुष्य
आदि) जीव कर्म करते हैं इसलिए उनकी चेतना को 'कर्म-चेतना' कहा गया है। (३) ज्ञान-चेतना :- सदेहावस्था के परे पहुँचे हुए सिद्ध जीव केवल शुद्ध ज्ञान-चेतना का अनुभव करते हैं। सदेहावस्था से तात्पर्य है - संसारी जीव।
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