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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
नवतत्त्वों का स्वरूप जानना चाहिये। नवतत्त्वों के स्वरूप को समझकर उसमें प्रवृत्त होना यही तत्त्वज्ञान की सार्थकता है। कहा है :
बुद्धेः फलं तत्त्वविचारणं च देहस्य सारं व्रतधारणं च ।
तात्त्विक विचार करना यह बुद्धि का सार है और व्रत (संयम) का पालन करना यह देह का सार है।
सन्दर्भ सूची
१.
संकेत- उ. नि. = उपरिनिर्दिष्ट क) अभयदेवसूरि टीका - स्थानांगसूत्र - स्था. १, पृ. १५
जीवकर्मवियोगश्च मोक्ष उच्यते । ख) उमास्वाति - तत्त्वार्थसूत्र - अ. १०, सू. ३,
__ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः १३। माधवाचार्य - सर्वदर्शनसंग्रह (भाष्यकार - उमाशंकर शर्मा “ऋषि') (आर्हतदर्शनम्) पृ. १६७. मिथ्यादर्शनादीनां . बन्धहेतूनां निरोधेऽभिनवकर्माभावान्निर्जरा हेतुसंन्निधानेनार्जितस्य कर्मणो निरसनादात्यन्तिककर्ममोक्षणं मोक्षः । कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षणं मोक्षः । संयोजक-उदयविजयगणि-नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह (हेमचंद्रसूरिसप्ततत्त्वप्रकरणम्), पृ. १७. अभावे बन्धहेतुनां, घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षः स्याच्छेषणां कर्मणां जये ।।१३८ ।। संयोजक - उदयविजयगणि - नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह (उमास्वातिनवतत्त्वप्रकरणम्), पृ. ७. उ. नि. (चारित्रचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि) - (नवतत्त्वप्रकरणरणम्), पृ. २६ मोक्खो कम्माऽभावो। पं. विजयमुनि शास्त्री - समयसार प्रवचन पृ. ८६. संयोजक - उदयविजयगणि - नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह - (हेमचंद्रसूरि सप्ततत्त्वप्रकरणम्) - पृ. १७. सुरासुरनरेन्द्राणां यत् सुखं भुवनत्रये। स स्यादनन्तभोगोऽपि, न मोक्षसुखसम्पदः ।। देवेन्द्रमुनि शास्त्री - जैन दर्शन स्वरूप और विश्लेषण - पृ. २२४.
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