Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 441
________________ ४१४ जैन दर्शन के नव तत्त्व भिन्न कहने का कारण यह कि एक की तुलना में दूसरा जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र के बारे में कम होता है। तात्पर्य प्रत्येक जीव में ज्ञानादि आदि होते भी हैं और नहीं भी होते है । जीव परिणामी अर्थात् परिवर्तनशील है । उसमें परिवर्तन की संभावना होतृ है । वह जो देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विविध जन्म ग्रहण करता है । उसे ही 'परिणमन' या 'परिवर्तन' कहते है । सांख्य दर्शन में पुरुष अकर्ता है। जैन दर्शन में शुभ और अशुभ कर्म जीव ही करता है और अपने कर्म का फल भी भोगता है t किसी भी जीव को दूसरे जीव के कर्म का फल भोगना नहीं पड़ता । जिसे जीव के सामर्थ्य की प्रतीति हो चाती है, वह निश्चित रूप से अपनी ध्येयप्राप्ति में सफल हो जाता है। जीव और आत्मा भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं जीव ज्ञानदर्शनमय है। जब वह पूर्ण क्षयोपशम प्राप्त करता है, तब उसे विश्व के सारे पदार्थों का ज्ञान हो जाता है। आत्मा ज्ञानमय है। आत्मा के पास ज्ञान के अलावा दूसरी कोई भी सामर्थ्य नहीं है। ज्ञान शक्ति सभी प्राणियों में होती है । परन्तु मनुष्य में विवेक बुद्धि भी होती है। जो मनुष्य अपनी विवेक बुद्धि का योग्य उपयोग करता है, उसे अपने में ही छिपे हुए अलौकिक दिव्य प्रकाश की प्रती हो जाती है । 9% " दूसरी बात यह कि आत्मा जब तक अज्ञान के आवरण में रहता है, तव तक उसे ज्ञानप्राप्ति होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । परंतु तब भी आत्मा में ज्ञान, दर्शनरूपी सामर्थ्य तो होती है। उसे किसी भी बाह्य प्रकाश से प्रकट करना नहीं पड़ता । अज्ञान यह जीव का असली भाव न होकर विकारी भाव है इसकी जानकारी जब होगी, तब अज्ञानरूपी अंधकार समाप्त होगा । Jain Education International जीव की सत्ता अनादि और अनन्त है । उसका आदि नहीं और अंत भी नहीं । जीव अविनाशी है अक्षय है । द्रव्य दृष्टि के कारण उसका स्वरूप तीनों कालों में एक जैसा ही होता है, इसलिए वह नित्य है तौर पर्याय दृष्टि के कारण वह भिन्न-भिन्न रूपों में परिणत होता रहता है, इसलिए जीव अनित्य भी है। जीव और शरीर एक प्रतीत होता है, परंतु पिंजड़े से पंछी, म्यान से तलवार जिस प्रकार भिन्न हैं, उसी प्रकार जीव शरीर से भिन्न है । शरीर के अनुसार जीव का संकोच और विस्तार होता रहता । जो जीव हाथी के विराटकाय शरीर में होता है, वही जीव चींटी के लघु शरीर में भी उत्पन्न हो सकता है। संकोच और विस्तार इन दोनों अवस्थाओं में उसकी प्रदेशसंख्या कम ज्यादा नहीं होती, समान ही होती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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