Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 482
________________ लेखिका महाराष्ट्र की पुण्यभूमि में अहमदनगर जिले के अन्तर्गत कान्हूर पठार नामक ग्राम में परम धर्मानुरागी पिता श्री रामचंदजी शिंगवी के यहाँ श्रीमती कस्तूरी बाई शिंगवी की रत्नगर्भा कक्षि से विमल बहन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जैन जगत् की दिव्य ज्योति महासतीजी श्री डॉ० धर्मशीलाजी म0 सा० के रूप में राष्ट्र विश्रुत बनीं। आचार्य सम्राट पू0 श्री आनंदऋषिजी म० सा० के मुखारविंद से भागवती दीक्षा स्वीकार कर विद्या, साधना और तितिक्षा की त्रिवेणी-स्वरूपा डॉ० धर्मशीला जी0 म0 सा० विश्वसंत-विरुद-विभूषिता गुरुणीवर्या महासतीजी पूज्य उज्ज्वल कुमारीजी म० साल की सेवा में सर्वतो भावेन समर्पित हो गईं / उनके सान्निध्य में श्रुताराधना और चारित्राराधना के पावन पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होती रहीं / उनके जीवन- पर्यंत प्राणपण से उनकी सेवा में अहर्निश संलग्न रहीं। आपने पूना विश्वविद्यालय में प्राकृत और पालि की एम० ए० परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णकर प्रथम स्थान प्राप्त किया / आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्य रत्न परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया / आपका हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, पालि तथा अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं पर असाधारण अधिकार है / जैन दर्शन के साथ-साथ आप का अन्य भारतीय दर्शनों का भी गहन अध्ययन है / सन् 1977 में “जैन दर्शन में नवतत्त्व" विषय पर भारत वर्ष के समस्त साधू-साध्वी वृंद में सर्वप्रथम आपने ही पी-एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। भगवान महावीर द्वारा निरूपित अंहिसा एवं विश्वशांति के महान् आदर्शों के संप्रसार हेतु आप निरंतर प्रयत्नशील हैं। ज्ञानाराधना के साथ आपका जीवन निरन्तर संपृक्त रहा है / पी-एच0 डी0 के अनंतर आज तक वह क्रम सतत गतिशील है / आपने अपने विद्याराधना के इस महान कार्य को मूर्त रूप देने हेतु अपने चेन्नई प्रवास के अन्तर्गत “णमो सिद्धाणंपद समीक्षात्मक परिशीलन' विषय पर डी० लिट0 के लिये विशाल शोध ग्रंथ तैयार किया है / यह शोध ग्रंथ महासतीजी की बाईस बर्ष की श्रुताराधना का सुपरिणाम है / प्रकाशक रिसर्च फाउण्डेशन फार जैनोलाजी, चेन्नई-79 श्री गुजराती श्वे० स्था0 जैन-एसोसिएशन चेन्नई-7 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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