Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 480
________________ 1 प्रकृति, 2 स्थिति, 3 अनुभाग और 4 प्रदेश । कर्म के आठ भेद हैं । उनमें से चा घाती कर्म हैं - 1 ज्ञानावरण, 2 दर्शनावरण, 3 मोहनीय और 4 अंतराय तथा चार अघाती कर्म हैं- 1 वेदनीय, 2 आयु, 3 नाम और गोत्र । ये आठ कर्म प्रकृतिबंध के भेद हैं । इन आठ कर्मों के कारण जीव को संसार - परिभ्रमण करना पड़ता है । 7. मोक्ष मार्ग चित्र क्र० 7 : सम्यक्त्व यह चित्र सम्यक्त्व के आठ भेद समझने के लिए है । ये भेद इस प्रकार हैं 1 निःशंका : इसमें यह कल्पना की गयी है कि जिस प्रकार पेड़ से टूटा हुआ फल नीचे गिरता है, इसमें कोई भी शंका नहीं होती, उसी प्रकार जिनदेव के कहे हुए तत्त्वों पर किसी भी प्रकार से शंका न होना ही निःशंका है । 2 निःकांक्षितः संसार से विमुख होना । संसार की ओर पीठ किए हुए व्यक्ति की कल्पना को चित्र में दिखाया गया है । सम्यकदृष्टि जीवों को संसार की आकांक्षा नहीं होती । वे ही निःकांक्षित हैं । 3निर्विचिकित्सा : निर्विचिकित्सा यानी घृणा न होना । इस चित्र में मुनि का शरीर भला होने पर भी राजा उसे आदरपूर्वक वंदन कर रहा है, यही निर्विचिकित्सा है । 4 अमूढ़दृष्टि : शास्त्र के लिए सच्ची श्रद्धा होना चाहिए इसलिए चित्र के व्यक्ति को आगम हाथ में लिया. हुआ दिखाया गया है । यही अमूढ़-दृष्टि है । 5 उपगूहन : इसचित्र में महावीर स्वामी और चंडकौशिक सर्प का चित्र दिखाया गया है । क्योंकि चंडकौशिक सर्प ने भ० महावीर को दंश किया था । फिर भी उसका दोष न देखते हुए उन्होंने उसपर प्रेम की ही वर्षा की । इस प्रकार स्वयं के गुणों को और दूसरों के दोषों को जो चलाता है और दूसरों को धर्म में स्थिर करता है, वही उपगूहन है । 7 वात्सल्य : इस चित्र में वात्सल्य की कल्पना स्पष्ट करने के लिए गाय और बछड़े का चित्र दिया गया है । जिस प्रकार गाय अपने बछड़े को प्यार करती है, उसी प्रकार साधर्मी बंधु पर निःस्वार्थ प्रेम करके उनके दुःख कम करना, यह वात्सल्य है । 8 प्रभावना : इसमें भी आगम का ही चित्र दिखाया है । धर्म का प्रमाण बढ़ाने के लिए और धर्म में चित्त स्थिर करने के लिए आगम का आश्रय लेना चाहिए । 8. मोक्षमार्ग : चित्र क्र० 8 - सम्यग्ज्ञान : इस चित्र में सम्यग्ज्ञान के प्रकार के प्रकार को कल्पना द्वारा स्पष्ट किया गया है । सम्यग्ज्ञान के दो भेद : 1 प्रत्यक्ष, 2 परोक्ष । जिसमें इन्द्रियाँ और मन की सहायता नहीं होती और जो सहजता से जाना जाता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद हैं- 1 देशप्रत्यक्ष और 2 सकल प्रत्यक्ष । अवधिज्ञान और मनः पर्याय ज्ञान ये देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । इन्द्रियाँ और मन की सहायता से वस्तु को अस्पष्ट जानना 'परोक्ष ज्ञान' है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान ये परोक्ष ज्ञान हैं । ( ४४३ ) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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