Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ ४१८ जैन दर्शन के नव तत्त्व बंध होता है। मानव को नरक में ले जानेवाली हिंसा ही है। अहिंसा से जनकल्याण और आत्मकल्याण दोनों ही होते हैं । जैन दर्शन का मुख्य सिद्धांत स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद है । उसका अहिंसा से घनिष्ट संबंध है। जिस प्रकार आचार में अहिंसा आवश्यक है, उसी प्रकार विचार में अनेकान्तवाद की भी अत्यंत आवश्यकता है। भ. महावीर के काल में आत्म-नित्यवाद, उच्छेदवाद आदि कई दार्शनिक विचारधाराएँ प्रचलित थीं । उससे सामाजिक और दार्शनिक क्षेत्रों में मतभेदों का निर्माण हुआ । इसलिए भ. महावीर ने सब का विचार करके समन्वयात्मक दृष्टिकोण रखा। कोई भी बात एकांगी न हो, तुम्हारा भी सच और हमारा भी सच । कोई भी झूटा नहीं। इसलिए भ. महावीर ने 'स्यात्' इस शब्द का उपयोग विचारपूर्वक किया । व्यक्ति को अपना कथन एक विशिष्ट सीमा तक योग्य प्रकार से समझा देना और अन्य के कथन पर किसी भी प्रकार के आंक्षेप न करना, इसे ही 'स्याद्वाद' कहते हैं । भ. महावीर की दृष्टि से वस्तु में सत् एवं असत् दोनों पक्ष होते हैं । वस्तु अपने मैलिक रूप से नित्य होने पर भी परिवर्तनीय पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य भी होती है । इस प्रकार जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत का अनेकांत के सिद्धांत के साथ बहुत ही नजदीक का रिश्ता है । अहिंसा का सिद्धांत अपने मौलिक रूप में तो निरपेक्ष ही होता है । अहिंसा के पूर्णतः पालन करने के लिए तो व्यक्ति को किसी भी जीव को किसी भी प्रकार से सृष्ट नहीं देना चाहिए। उसे कितने भी कष्ट आये उसे सहन करना चाहिये । प्राणियों को कष्ट देना यह हिंसा है और कष्ट न देना यह अहिंसा है 1 जीवो के अस्तित्व की रक्षा पर इतने सूक्ष्म विचार किसी ने भी नहीं रखे हैं। जीवों की हिंसा नही करते हुए उनका रक्षण करना चाहिए, यही असली अहिंसा है, फिर वह जीव कोई भी हो। इस प्रकार का विचार जैन दर्शन के अलावा कहीं भी नहीं दिखाई देता । यह जैन धर्म का बहुत बड़ा वैशिष्ट्य है, इसलिए जैन दर्शन में नवतत्त्वों में जीवतत्त्व का असाधारण महत्त्व है। सूक्ष्म हिंसा मानव के द्वारा कैसी होती रहती है? अहिंसा के पालन के लिए क्या करना चाहिए? इसके लिए 'गांधी उज्ज्वल वार्तालाप' नामक पुस्तक में विस्तृत वर्णन है १८ आज के वैज्ञानिक युग में अनेक नई-नई व्यवहारोपयोगी वस्तुओं का अविष्कार हुआ है, उसी के साथ अणुबम जैसे महान संहारक और घातक शस्त्रों का भी निर्माण हुआ है। यह सब किसलिए? अपनी सत्ता और अपना महत्त्व दूसरे को दिखाने के लिए ही है। एक तरफ शस्त्र - स्पर्धा में एक देश दूसरे देश के आगे जाना चाहता है और दूसरी तरफ जनता को शांति की इच्छा है। परंतु शांति शस्त्रों की स्पर्धा से नहीं मिल सकती। शांति का निवास तो आध्यात्मिकता में है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482