Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 464
________________ ४३७ जैन-दर्शन के नव तत्त्व इसके साथ ही आयुर्वेद और जैन तत्त्व ज्ञान इनका भी योग्य रीति से समन्वय हुआ है। जिस प्रकार आयुर्वेदिक औषधि व्याधिग्रस्त जीव को सुखी करती है, उसी प्रकार यह नवतत्त्व रूप यह औषधि सांसारिक दुःख से ग्रस्त हुए जीव को मोक्षरूपी आरोग्य प्राप्त करा देती है, ऐसा भी वर्णन मिलता है। जैन तत्त्वों का मुख्य सिद्धांत स्यादवाद या अनेकान्तवाद है। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद अर्थात् किसी भी निर्णय को एकांत सत्य नहीं मानना, क्योंकि मानवी बुद्धि परिमित ही है इसलिए एक ही मत सब जगह, सर्वकाल में सत्य नहीं होता, यह बात अब करीब-करीब सर्वमान्य हुई है। पूर्व के वैज्ञानिकों के निष्कर्ष अभी के वैज्ञानिक मानते ही हों, ऐसा नहीं है। इसलिए अनेकान्तवाद सही साबित होता अनेकान्तवाद से मतभेद कम होने में सहायता मिलती है। भारत के अनेक धर्म सामंजस्य से रह सकते हैं। अनेकान्तवाद दोनों का ही कहना आंशिक रूप से सही है ऐसा समन्वय साधकर झगड़ने के बजाय आत्मिक उन्नति की ओर अधिक ध्यान केंद्रित कीजिए, ऐसा सिखाता है और यही भगवान महावीर का संदेश है। मानव-मानव के बीच मतभेद अधिक न होकर, कम होने चाहिए। संपूर्ण मानवजाति का कल्याण हो और सभी मोक्षप्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पायें, यही भगवान महावीर का ध्येय था। इसीलिए अनेक दुःख और परिषह सहन कर भगवान महावीर ने मानवमात्र को सुखी करने के लिए प्रयत्न किया। इसीलिए आज २५०० वर्षों के बाद भी जैन विद्वान, साधु और साध्वी अपने प्रत्यक्ष आचरण से मानवमात्र को सुखी करने के प्रयत्न कर रहे हैं। विचारों में अनेकान्तवाद, वाणी में स्याद्वाद और आचार में अहिंसा जैन-दर्शन की यही विशेषता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध विचार, सम्यक् आचार और उदात्त संस्कार के शाश्वत जीवनमूल्यों का रहस्य इन नव तत्त्वों के माध्यम से दिखाता है। ___ भारतीय संस्कृति में सहिष्णुता और क्षमा ये दो श्रेष्ट गुण हैं और इन दो गणों के कारण ही भारतीय संस्कृति विश्व में श्रेष्ठ समझी जाती है। इसका श्रेय जैन दर्शन को देने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ज्ञानयुक्त श्रद्धा, परधर्मसहिष्णुता, प्राणी मात्र के प्रति क्षमा और सर्वत्र समभाव- यह चतुःसूत्री वर्तमान युग में मानव का कल्याण कर सकती है। इन सब बातों से जैन धर्म विश्वधर्म है यह स्पष्ट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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