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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
हैं, यह जानकर जो उनसे निर्लिप्त रहता है, वह नया कर्मबंध नहीं करता। इसलिए 'बंध' तत्त्व जाने बिना सत्य स्थिति ध्यान में नहीं आती। इसीलिए 'बंध' तत्व का ज्ञान आवश्यक होता है।
बंध का स्वरूप, बंध की परम्परा, भिन्न-भिन्न कर्मों के बंध हेतु आठ कर्म, बंध और जीव की पराधीनता, कर्मबंध प्रक्रिया, कर्म-संक्रमण, द्रव्यबंध-भावबंध, बंध के चार भेद, शुभ और अशुभ कर्म, कर्म का स्वरूप, कर्म का बंधन और मोक्ष आदि का विस्तृत वर्णन बंध तत्त्व की चर्चा में किया गया है। (E) मोक्ष तत्त्व : पाश्चात्य दर्शनों से भारतीय दर्शन की विशेषता यह है कि जहाँ भारतीय दर्शनों का उद्देश्य मोक्ष का चिन्तन है, वहीं पाश्चात्य दर्शनों का उद्देश्य विश्व की व्याख्या करना है। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटों के मत से दर्शन की उत्पत्ति आश्चर्य के कारण होती है। मनुष्य को प्रकृति की विविध घटनाएँ और परिवर्तन देखकर आश्चर्य लगता है। मनुष्य उसका कारण ढूंढने लगता है। यहीं से दर्शन का प्रारंभ होता है। 'दर्शन' का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द Philosophy है। Philosophy अर्थात् ज्ञान के प्रति प्रेम - 'Love for Knowledge' इसके विपरीत भारतीय दर्शन की उत्पत्ति जो जीवन का कठोर सत्य दुःख है, उसी से होती है। जीवन के दुःखों को दूर करना यही भारतीय दर्शन का एकमात्र लक्ष्य
भारत में मोक्ष-चिन्तन जितना प्राचीन है, उतना ही मनोरंजक भी है। वस्तुतः मोक्ष-चिन्तन भारतीय जीवन दर्शन का अविभाज्य अंग है। उसे जीवन के अन्य अंगों से अलग नहीं किया जा सकता। 'मोक्ष' यह जीवन का अंत नहीं है, वरन् उसका आत्यन्तिक विकास है। 'मोक्ष' यह जीवन की शून्यावस्था न होकर जीवन की पूर्णता है। जिसमें विजातीय तत्त्व निकल जाने पर पूर्णत्व ही शेष रहता है। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कहा है -
वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकार से सदासर्वदा परिपूर्ण है। यह विश्व भी उसी परबह्म से पूर्ण है। क्योंकि यह पूर्णता उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुई है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत् भी पूर्ण है। इसलिए यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण के निकल जाने पर भी वह पूर्ण ही रहता है।
'मोक्ष' यह भारतीय दर्शन का एकमेव केन्द्रबिन्दु है। 'मोक्ष' यह शब्द 'मुच्' धातु से बना हुआ है। उसका अर्थ 'स्वतंत्र होना', 'छुटकारा प्राप्त करना' ऐसा होता है। चार्वाक दर्शन के अपवाद को छोड़कर सब दर्शनों ने मोक्ष का अर्थ जन्म और मृत्यु के चक्र से अर्थात् सब सांसारिक दुःखों से छुटकारा प्राप्त करना है। उपनिषदों में ऋषियों ने कहा है पुनः पुनः जन्म प्राप्त करना यही सब दुःखों
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