Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 459
________________ ४३२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व मुक्ति का मार्ग संवर और निर्जरा इन दो साधनों से प्रशस्त होता है। मुक्त होने पर जीव लोकाग्र भाग पर स्थित होता है। उसे “सिद्ध-शिला" कहते हैं। जीव को मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही नवतत्त्वों का स्वरूप जानना आवश्यक है जैन दर्शन में मोक्ष का विशिष्ट स्थान है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास को अधिक महत्व दिया गया है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा 'मोक्ष' या मुक्ति को मात्र ज्ञान से प्राप्त नहीं कर सकता, परंतु क्रमशः स्वयं का आध्यात्मिक विकास कर पूर्णत्व प्राप्त करता है। व्यक्ति का चारित्रिक विकास अथवा आध्यात्मिक विकास क्रमशः होता है। उपनिषदों में भी क्रमिक आध्यात्मिक विकास का उल्लेख मिलता है। बौद्ध दर्शन में भी ऐसा उल्लेख है। परंतु जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास का वर्णन अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया है। ऐसी ही कल्पना बाद में भगवद्गीता में भी आई आत्म-विकास की क्रमिक अवस्थाओं में मिथ्यात्व एवं कषाय ही सचमुच अवरोध है और उसी से आत्मा कर्म से बंधा हुआ है। जैसे जैसे कर्मों का आवरण कम होता जाता हैं, वैसे वैसे आत्मा अपने आत्मिक गुणों से युक्त होता जाता है और उसे सत्य और असत्य की पहचान हो जाती है। आट कमों में से चार कमों को (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ) नष्ट करके आत्मा सर्वज्ञ बनता है। इस अवस्था को अरिहन्त अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में जीव अथवा आत्मा अन्य जिज्ञासु जीवों का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करता है। वह संपूर्ण विश्व के वर्तमान, भूत और भविष्य को एक ही समय में जानता है। इस अवस्था को पातंजल योग-दर्शन में सर्वज्ञत्व की अवस्था कहा गया है। सर्वज्ञ अवस्था अथवा अरिहन्त अवस्था होने पर ही आत्मा को सिद्धावस्था की प्राप्ति होती है। इस अवस्था में वह शेष चार कर्म (वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र) नष्ट करता है। ऐसी अवस्था में आत्मा की श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी रुक जाती हैं और आत्मा देह त्याग कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मोक्ष में आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व होता है। प्रत्येक मुक्त आत्मा की अपनी अलग-अलग सत्ता रहती है। मुक्त आत्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। वैदिक दर्शन आत्मा से भिन्न ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखता है, परंतु जैन दर्शन वैसा नहीं मानता है। क्योंकि जैन दर्शन में आत्मा ही परमात्मा बनता है। अज्ञान या मिथ्यात्व के कारण ही जीव अपनी आत्मा के परमात्म स्वरूप को पहचान नहीं पाता है और अपनी ईश्वरतुल्य शक्ति से अनभिज्ञ रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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