Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 460
________________ ४३३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही जीव को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार साधक क्रमशः आत्मिक शक्ति का विकास करता है। योग साधना की विभिन्न परंपराओं में मुक्ति के लिए विभिन्न मागों का अवलंबन लिया जाता है। कोई ज्ञानयोग को प्रमुख स्थान देते हैं, तो कोई क्रियायोग को या भक्तियोग को प्रमुख स्थान देते हैं। गीता में अलग-अलग प्रकार के योग मागों का उल्लेख किया गया है। वेदान्त दर्शन ज्ञान-योग को ज्यादा महत्त्व देता है। बौद्ध परंपरा में ज्ञान के साथ ही क्रिया का समन्वय किया गया है। परंतु जैन दर्शन की विशेषता यह है कि उसमें क्रियायोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीनों योगों का समन्वय हुआ है। भारतीय तत्त्वज्ञान मूल्यात्मक है। चाहे जिस प्रकार का सत्यान्वेषण वह नहीं करता, वरन जिससे मानव को परिपूर्णता प्राप्त हो, उसका कल्याण हो, ऐसा सत्यान्वेषण वह करता है। नीर-क्षीर-विवेक कर सकने वाले हंस के समान भारतीय तत्त्वज्ञान है। कठोपनिषद के अनुसार वह 'प्रेय' की अपेक्षा 'श्रेय' को अधिक पसंद करता है। वह अपरा विद्या की अपेक्षा परा विद्या को ध्येय मानता है। भारतीय तत्त्वज्ञान नित्यानित्य विवेक का प्रयत्न करता है। इस प्रकार उसकी यात्रा असत् से सत्, सान्त से अनन्त, अल्प से पूर्ण तथा देह से आत्मन् की ओर है। उसकी विचारसरणी में केवल सत्ताशास्त्र की अपेक्षा जीवन विषयक प्रज्ञा को आत्मसात करने का प्रयत्न किया गया है। भारतीय दर्शन एक आध्यात्मिक दर्शन है। इसने हमेशा ही आत्मा का महत्व माना है। प्रत्येक मानव का लक्ष्य अपने आत्म स्वरूप को पहचानना है, क्योंकि प्रत्येक दर्शन का ध्येय भी स्वस्वरूप की पहचान कराना ही है। सांख्य- योग, न्याय-वैशेषिक और वेदान्त दर्शन आत्मा को अनादि, अनंत, अविकारी, नित्य और निष्क्रिय या कूटस्थनित्य मानते हैं, उसे परिवर्तनीय नहीं मानते हैं। किन्तु जैन धर्म शुरू से मोक्षवादी है वह परिणामी आत्मवाद का समर्थक है। आत्मा जब राग-द्वेष को दूर करता है, तभी विशुद्ध बनकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जीव और कर्म का अलग-अलग लक्षण समझकर प्रज्ञारूपी छैनी से उन्हें अलग-अलग करना चाहिये, तभी बंधन से छुट्टारा होता है। बंधन को नष्ट कर आत्म-स्वरूप में स्थिर होना चाहिए। "मैं चैतन्यस्वरूप हूँ", "मैं दृष्टा हूँ", "मैं ज्ञाता हूँ"; मैं जो कुछ हूँ वह अपने ही कारण हूँ। मुझमें ही नरक है और स्वर्ग है। विशुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट कर मैं मोक्षप्राप्ति कर सकता हूँ। इस प्रकार का विशिष्ट विवेचन जैन' दर्शन में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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