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जैन दर्शन के नव तत्त्व
and be merry
इस सिद्धान्त में विश्वास करती है। अन्य दार्शनिकों ने जन्मान्तर माना है इसलिए उन्होंने धर्म और मोक्ष को भी पुरुषार्थ माना है 1 अर्थ और काम जन्य सुख भौतिक सुख हैं और वे क्षणभंगुर हैं। इसके विपरीत धर्म द्वारा प्राप्त मोक्ष का सुख अक्षय और अनन्त है ।
ईश्वर के समान ही जीव के संबंध में भी दार्शनिकों में वाद-विवाद है । सर्वप्रथम चार्वाक दर्शन का कथन यह है कि 'शरीर ही आत्मा है वही कर्ता और भोक्ता है। चार महाभूतों के एकत्रित होने से चैतन्य का निर्माण होता है | चेतना से बन उत्पन्न होता है, देह तो जड़ रूप में ही है । कुछ चार्वाक विचारक इन्द्रिय को, कुछ प्राण को, तो कुछ मन को ही आत्मा मानते हैं। स्वतंत्र रूप से उनके विचार कहीं भी नहीं मिलते।
चार्वाक दर्शन शरीर के अंत को ही मोक्ष मानता है । उस दर्शन में मोक्ष अपना सब महत्त्व गँवा बैठता है, ऐसे मोक्ष को मोक्ष नहीं कहा जा सकता । " बौद्ध दर्शन में 'मोक्ष' तत्त्व :
बौद्ध दर्शन के अनुसार भव परंपरा का विच्छेद होना मोक्ष है । संसार को दुःखमय, क्षणिक और शून्य समझना मोक्ष का साधन है । बौद्ध दर्शन के अनुसार जीवात्मा विज्ञानस्वरूप है, विज्ञान प्रति क्षण बदलता रहता है, इसलिए आत्मा अनित्य है । बौद्ध दर्शन में मोक्ष को 'निर्वाण' कहा है। निर्वाण अर्थात् दीपक के समान बुझ जाना। राग-द्वेष एवं क्लेश का विनाश ही निर्वाण है, ऐसा वे मानते हैं ।
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कुछ बौद्ध लोग रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कंधों के इनरोध को निर्वाण कहते है । वे दुःख के आत्यन्तिक विनाश को निर्वाण मानते हैं, फिर भी वे आत्मा का आत्यंतिक विनाश नहीं मानते। वे 'निर्वाण' को विशुद्ध आनंद ही मानते हैं । ३२
इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति और मोक्ष के स्वरूप के विषय में सब विचारक भिन्न भिन्न मत रखते हैं फिर भी सभी भारतीय दर्शनों ने मोक्ष को स्वीकार किया है। मोक्ष की प्राप्ति सभी भारतीय दर्शनों का लक्ष्य है । जैन दर्शन में 'मोक्ष' तत्त्व तथा अन्य दर्शनों से जैन दर्शन का वैशिष्टय :
कर्म - बंधन से सर्वथा छुटकारा प्राप्त करना, जन्म-मरणरूपी चक्र की गति को रोक देना और परमानंद की अवस्था प्राप्त करना यही 'मोक्ष' है I " कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ।” सब कर्म-मलों से रहित आत्मा ही मुक्त आत्मा है, ऐसा उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय में कहा है 1
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